देश की अदालतों में करोड़ों मामलों के लंबित होने की चिंता सरकार व शीर्ष न्यायालय यदा-कदा करते रहते हैं। मुद्दा है भी गंभीर। भारतीय न्यायिक प्रणाली में स्थिरता की हद तक शिथिलता आ चुकी है। किसी मामले का क्या निपटारा कब व किस प्रकार होगा, इसका अंदाजा पीड़ित पक्ष को अपराध होने की पुलिस को सूचना देते वक्त ही हो जाता है। मामला कितना भी संगीन क्यों न हो, भारतीय पुलिस प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने से पहले पीड़ित को हर संभव टालने की कोशिश करती है। आए दिन सैकड़ों हजारों अपराधिक मामलों को पुलिस में दर्ज करवाने के लिए लोगों को रिश्वत, राजनेताओं के फोन या धरने प्रदर्शन का सहारा लेना पड़ता है। जब कोई अपराध की सूचना दर्ज हो जाती है, तब पुलिस की जांच व चालान पेश करवाने की प्रक्रिया को कैसे पूरा किया जाता है, यह किसी से कहने-सुनने की आवश्यकता नहीं। अदालतों की चौखट पर मामलों के पहुंच जाने पर आरोप पूर्व जांच व आरोपों को तय करने में सालों गुजर जाते हैं। किसी मामले में लेटलतीफी बनी रहे, इसके लिए वकील, गवाह, पुलिस व न्यायालय के अधीनस्थ कर्मचारी हर तरह से रोड़े अटकाने में अपनी ऊर्जा खर्च करते हैं। जिससे कि मामला लटकता ही चला जाता है व न्यायधीश चाहकर भी न्याय नहीं दे पाते। फिर न्यायालयों में न्यायाधीशों की कमी, पुलिस बल की कमी व अपराधियों-पीड़ितों की आर्थिक, सामाजिक पृष्ठभूमि भी एक जिम्मेदार पहलू है। इन्हीं समस्याओं के चलते भारतीय क्षेत्र में न केवल अपराधी बेखौफ हैं बल्कि दिन-ब-दिन नए अपराधी पैदा हो रहे हैं, क्योंकि सब जानते हैं कि यहां पर सजा होने में सालों लगेंगे, तब तक जो होगा देखा जाएगा। अपराधिक मामलों से भी बदत्तर हाल दीवानी मामलों में है। पारिवारिक या लेन-देन, अलाटमेंट आदि के विवादों का आखिरी निर्णय आने का औसत समय 20 से 25 वर्ष तक है। कई दफा तो किसी परिवार की दो या तीन पीढ़ियां मुकदमा लड़ती रहती हैं। अंत में ऐसा भी देखा जा सकता है कि विवाद ग्रस्त सम्पत्ति आगे इतने हिस्सों में बंट जाती है कि पक्षकार न्यायालय जाना ही छोड़ देते हैं व न्याय की आस को दिलो-दिमाग से झटक देते हैं। ऐसी परिस्थितियों में सरकार एवं न्यायालयों को यह सुनिश्चित करना होगा कि कौन-से समाधान हों कि न्यायपालिका पर भी बोझ कम हो व देशवासियों का न्यायिक प्रक्रिया में विश्वास बढ़े एवं अपराधियों में भय पैदा हो। सर्वप्रथम सरकार एवं न्यायपालिका को आए दिन दर्ज होने वाले झूठे मुकदमों की पहचान का कोई सुगम तरीका ढूंढना चाहिए। क्योंकि करोड़ों मामलों में लाखों ऐसे मामले होंगे, जो बदले की भावना, परेशान करने के इरादे या फिर ब्लैकमेल करने के लिए ही दर्ज करवाए गए होंगे। दूसरा, पुलिस व्यवस्था में राजनीतिक हस्तक्षेप बंद कर पुलिस में सिफारिश एवं भ्रष्टाचार को मिटाया जाना अतिआवश्यक है। इससे पुलिस की कार्यकुशलता भी बढ़ेगी व प्राथमिक जांच में पुलिस झूठे मामलों के फेर में उलझने से भी बची रहेगी। ग्रामीण क्षेत्रों व छोटे मामलों को निपटाने के लिए वर्तमान में चल रही लोक अदालतों का भी अधिक से अधिक विस्तार किया जाना चाहिए। इससे जहां मुकदमों में जटिलताएं नहीं पनपती, वहीं तुरंत ही न्याय चाहने वालों की चौखट पर ही उन्हें न्याय मिल जाता है।
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