केन्द्र सरकार ने नई शिक्षा नीति को मंजूरी दे दी है। 34 वर्ष पुरानी नीति में काफी बड़े बदलाव किए गए हैं। परिवर्तन प्राकृति का नियम है और बदलते समय के अनुसार परिवर्तन होने जरूरी भी हैं। किसी भी नीति की सार्थकता उसकी उपयोगिता के साथ जुड़ी होती है। जो नीति समय की आवश्यकताओं को पूरी नहीं करती उसमें बदलाव जरूरी है। जहां तक शिक्षा नीति में नए बदलाव करने का संबंध है इसमें पांचवी तक की शिक्षा मातृ भाषा या क्षेत्रीय भाषा में देने का प्रस्ताव है, माृत भाषा का मामला बेहद पेचीदा है। भले ही सरकार ने मातृ भाषा की महत्वता को स्वीकार किया है लेकिन शिक्षा विशेषज्ञों का एक हिस्सा मातृ भाषा को ग्रैजुएट स्तर तक माध्यम बनाने का समर्थन करता है। कई राज्यों में ग्रैजुएट स्तर तक राज्य की क्षेत्रीय भाषा को माध्यम बनाया गया है। दूसरी तरफ इस तथ्य पर भी विचार करना होगा कि पांचवीं के बाद किसी अन्य भाषा को माध्याम बनाना कितना उपयुक्त रहेगा?
पांचवीं के बाद कौन सी भाषा माध्यम बनेगी इसकी जानकारी भी अभी सामने आनी है। देश के बंटवारे के समय से ही भाषा के मामले को लेकर विवाद चलता आया है। भाषा के मामले को भाषा वैज्ञानिक नजरिए से निपटाने की आवश्यकता है। भाषा के मामले में अवैज्ञानिक धारणाओं से बचना होगा। नई शिक्षा नीति में सरकार ने पेपरों के मूल्यांकन के दायरे को बढ़ाया है। विद्यार्थियों और उसके साथियों को भी शामिल किया है। यह भी देखना होगा कि इस तरह की प्रक्रिया कितनी लम्बी होती है। सरकार ने शिक्षा को रोजगार प्रमुख बनाने पर बल दिया है जो समय की आवश्यकता है। छठी कक्षा से वोकेशनल शिक्षा शुरू की जाएगी। मौजूदा समय में वोकेशनल शिक्षा के लिए आई.टी.आई. में दसवीं के बाद दाखिला लेना पड़ता है।
नि:संदेह शिक्षा को पेशेवर बनाना जरूरी है, ताकि दसवीं के बाद स्कूल छोड़ने पर विद्यार्थी कोई न कोई कौशल प्राप्त कर रोटी कमाने के योग्य बन सके। उच्च शिक्षा के मामले में एमफिल की डिग्री खत्म करना भी सही निर्णय है। एमए और पीएचडी के बीच अध्ययन के लिए किसी अलग डिग्री का कोई आधार नहीं रह जाता। जहां तक विज्ञान और कला वर्ग में अंतर खत्म करना है यह विद्यार्थियों को अध्ययन के लिए विषय चयन की आजादी देता है। शिक्षा नीति में बड़े परिवर्तन किए गए, लेकिन इसे लागू करने के लिए इसकी व्यवहारिकता को समझना जरूरी है। कम से कम भाषा के मामले में क्षेत्रीय भाषाओं का मामला महत्वपूर्ण है।
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