हम 21वीं शताब्दी के आधुनिक युग में जी रहे हैं, लेकिन देश अभी तक जातिवाद से आजाद नहीं हो सका। आगरा में एक महिला की मृतक देह का संस्कार यह कहकर रोक दिया गया कि श्मशान घाट उच्च जातियों की है। आखिर मृतका का संस्कार किसी और जगह किया गया। ऐसी घटना महज उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि पंजाब सहित अन्य कई राज्यों में ऐसी घटनाएं घट चुकी हैं। इन परिस्थितियों को देखकर ऐसा लग रहा है कि जैसे हम इंसान कभी बनेंगे ही नहीं। यह मामला बेहद दु:खद है और ऐसी घटनाओं को रोकना सरकार व प्रशासन की जिम्मेदारी है, जो चुप्पी साधकर बैठे हैं। वोट का मामला है, कोई हिम्मत नहीं करता कि इस संवेदनहीनता के खिलाफ आवाज उठाई जाए।
प्राचीन काल से ही जातिवाद को रोकने के लिए समाज सुधारकों ने आवाज बुलंद की है, विशेष रूप से मध्यकाल में इन कुरीतियों के खिलाफ क्रांति जैसा माहौल पैदा किया गया। देश के सभी धर्म ही जातिवाद के भेदभाव के खिलाफ हैं, जहां आधुनिक व लोकतांत्रिक युग में जातिवाद के लिए कोई जगह ही नहीं है। हमारे देश का संविधान सभी को समानता का अधिकार देता है, फिर भी समाज के माथे पर जातिवाद का कलंक लगा हुआ है। राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए जातिवाद की कुरीतियों को अनदेखा किया जा रहा है, जोकि समाज में नफरत और हीन भावना पैदा कर रहा है। जातिवाद के कारण कई घटनाएं राजनीतिक हिंसा का रूप धारण कर चुकी हैं। जातिवाद के कारण केरल व पश्चिमी बंगाल में राजनीतिक हिंसा देश भर में सुर्खियों में रह चुकी है। दुख की बात है कि नेता भाईचारे का संदेश देकर जातिवाद से ऊपर उठने के संदेश तो खूब देते हैं लेकिन निम्न स्तर पर उनके साथ जुड़े वर्करों को जातिवाद आधारित हिंसा छोड़ने के लिए कुछ नहीं कहा जाता। हिंसा में पकडे जा रहे आरोपी किसी न किसी पार्टी से जुड़े होते हैं और राजनीतिक दल अपने-अपने वर्करों के बचाव के लिए प्रयास करते हैं। वोट की खातिर जातिवाद को हवा देना न केवल समाज के लिए खतरा है, बल्कि यह देश के विकास में रुकावट खड़ी करता है। नेताओं को चाहिए कि वे अपने स्वार्थों के लिए समाज के भाईचारे की बलि न चढ़ाएं। भारत की शान समानता और सबके सम्मान में ही निहित है।
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