राजस्थान में सत्तापक्ष कांग्रेस में सचिन पायलट गुट की बगावत के कारण पैदा हुआ राजनीतिक संकट उलझता जा रहा है। इस मामले में राज्यपाल की भूमिका भी चर्चा का विषय बन गई है। सही अर्थों में देखें तो अब यह मुख्यमंत्री और राज्यपाल का विवाद बन गया है। अब बात यहां आकर ठहर गई है कि मुख्यमंत्री और उनके साथी विधायकों ने राज्यपाल कलराज मिश्र से विधानसभा का विशेष सत्र बुलाने की मांग की है लेकिन राज्यपाल कुछ आपत्ति व्यक्त कर इस मांग को स्वीकार नहीं कर रहे। जहां तक कांग्रेसी विधायकों की मांग का संबंध है, विधान सभा का प्रस्ताव लोगों के चुने हुए प्रतिनिधियों से जुड़ा हुआ है। नियमानुसार यदि विधायक चाहें तब सत्र बुलाया जाना चाहिए। राज्यपाल का मुख्य तर्क यह है कि कांग्रेस के पास बहुमत है तो सत्र की आवश्यकता नहीं तब इतने कम समय में सत्र नहीं बुलाया जा सकता है। अब यहां संवैधानिक मर्यादा को कायम रखने की बात भी महत्वपूर्ण है।
दरअसल विधान सभा का उद्देश्य केवल बहुमत साबित करना ही नहीं होता बल्कि इसकी कार्यवाही में सरकार चलाना भी शामिल होता है। शायद यही कारण है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने राज्यपाल को भेजे अपने प्रस्ताव में फ्लोर टैस्ट का जिक्र नहीं किया। जहां तक सत्र बुलाने के लिए आगामी सूचित करने का संबंध है, विधायक तो कई दिनों से ही सत्र बुलाने की मांग कर रहे हैं। राज्यपाल के कोविड-19 के कारण सत्र न बुलाने की बात में भी कोई वजन नजर नहीं आ रहा, हालांकि पांडेचेरी व महाराष्ट्र में विधान सभाएं चल रही हैं। राजस्थान में राज्यपाल की भूमिका भी चर्चा का विषय बन गई है दूसरी तरफ एक मुख्यमंत्री द्वारा राज्यपाल को राज भवन के घेराव की चेतावनी देना और अपनी जिम्मेदारी से बचना भी नैतिक तौर पर उचित नहीं। इससे पूर्व भी विभिन्न राज्यों में मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच टकराव की घटनाएं घट चुकी हैं।
भले ही संवैधानिक तौर पर राज्यपाल का पद किसी भी दल से ऊपर है, उनकी राजनीतिक पृष्टभूमि के कारण सरकारें खतरे में पड़तीं रही हैं और कई बार सरकारें टूट भी चुकी हैं। यहां तक कि राज्यपाल राजनीतिक पठापठक के चलते आधी रात को ही मुख्यमंत्री को शपथ तक दिलवा चुके हैं। राजस्थान में पैदा हुआ राजनीतिक संकट राज्य व जनता के हित में नहीं है, इससे सरकारी काम प्रभावित हो रहे हैं। राज्यपाल को निष्पक्ष कार्यवाही करते हुए मामले को किसी निष्कर्ष की तरफ ले जाना चाहिए।
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