भारत में युवा बेरोजगार किस हद तक जान जोखिम में डालकर रोजगार पाने को उतावले व परेशान हैं, यह इराक में 39 भारतीय नौजवानों की दर्दनाक मौत से पता चलता है। मारे गए युवक और उनके परिजन अच्छी तरह से जानते थे कि उनके लाडले इराक के जिस मोसुल शहर के नजदीक आजीविका के संसाधन जुटाने जा रहे हैं, वह आतंकियों की क्रूरता का गढ़ है। लेकिन देश में व्याप्त बेरोजगारी कि जो भयावहता है, उसने उन्हें इस जानलेवा संकट को झेलने के लिए मजबूर कर दिया। बेरोजगारी की इस कुरूपता से पर्दा उठने के बाद भी हमारे नीति-नियंता देश में ही रोजगार उपलब्ध हों, ऐसे उपाय करेंगे, फिलहाल लगता नहीं है।
विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने राज्यसभा में देश को दुखद सूचना देकर सदमे में डाल दिया है। अपनी ओर से दिए बयान में उन्होंने कहा है कि आईएसआईएस के आतंकियों ने 2014 में ईराक में अपहरण कर बंधक बनाए गए 40 भारतीयों में से 39 की हत्या कर दी थी। इराक के दूसरे बड़े शहर मोसुल के बदोश गांव में एक पहाड़ी पर कब्र में सामूहिक रूप से दफन किए 39 शव मिल गए हैं। लापता युवकों के शव खोजने के लिए इराक सरकार के साथ गहन अभियान चलाया गया। नतीजतन बदोश गांव में दफन किए शव मिल गए। इनके भारतीय होने की पहचान लंबे केश, कड़ों, वस्त्र और इराकियों से भिन्न कद-कांठी से की गई। इसके बाद इन शवों को बगदाद लाया गया, जहां इनके परिजनों के डीएनए से मिलान करने के बाद व्यक्तिगत पहचान की गई। हालांकि फिलहाल 38 शवों का ही डीएनए मिलान हुआ है। एक शव का शत-प्रतिशत डीएनए मिलान नहीं हो पाया है।
दरअसल आतंकियों द्वारा अंजाम दिए इस हत्याकांड को स्वीकार्यता अब मिली है, जबकि वास्तव में तीन साल पहले इन कामगरों में से एकमात्र जिंदा बचे साथी हरजीत मसीह ने तीन साल पहले ही सुषमा स्वराज को इन बंधकों के मारे जाने की खबर दे दी थी। इस खबर को सरकार को देते हुए मसीह ने कहा था कि इन 39 भारतीयों को इस्लामिक स्टेट के आतंकवादियों ने मेरी आंखों के सामने मारा है। पंजाब के गुरुदासपुर के रहने वाले हरजीत मसीह ने तब बताया था कि इराक के एक कारखाने में ये लोग काम करते थे और वहीं से इन्हें आतंकियों ने अपहरण कर बंधक बना लिया था। इन बंधकों में हरजीत भी शामिल था।
हरजीत के अनुसार हत्या के दिन उन्हें घुटनों के बल बैठाया और फिर गोलियों से भून दिया। हरजीत की जांघ में भी गोली लगी थी, किंतु वह किसी तरह बचकर भारत लौट आया। हरजीत इस दौरान अपनी असली पहचान छिपाकर ‘अली’ बन गया और उसने अगले दिन इरबिल कस्बे में आकर सुषमा स्वराज को फोन से इस हत्याकांड की सूचना भी दी। किंतु सुषमा ने हरजीत के दावे को झूठा बताया और वे इसे राज्यसभा में बयान देने से पहले तक हत्याकांड की हकीकत को दृढ़ता से नकारती भी रहीं। यही नहीं विदेश मंत्रालय ने यहां तक कहा कि सभी भारतीय युवक जिंदा हैं। साफ है, मंत्रालय ने बिना किसी ठोस जानकारी के युवकों के जिंदा होने की बात कही थी। हरजीत के कथन को विदेश मंत्रालय को इसलिए गंभीरता से लेने की जरूरत थी, क्योंकि वह कोई सिरफिरा या बौराया व्यक्ति न होकर आंतकियों द्वारा अंजाम तक पहुंचाए गए हत्याकांड का चश्मदीद गवाह था।
मृतकों में से 27 पंजाब के अमृतसर, गुरुदासपुर, होशियारपुर, कपूरथला व जालंधर के है। अन्य मृतकों में हिमाचल के 4 तथा अन्य पटना व कोलकाता के हैं। दरअसल यह समझ से परे है कि सरकार यदि हरजीत के बयान को सत्यता के निकट मानते हुए यह कह भी देती कि सरकार को 39 भारतीयों के जिंदा या मृत होने के संबंध में कोई पुख्ता जानकारी नहीं है। तब भी उसका कुछ बनने या बिगड़ने वाला नहीं था। क्योंकि वैसे भी यह भावनाओं एवं रिश्तों से जुड़ा गंभीर मामला था। राजनैतिक नफा या नुकसान से इसका दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था। अब जब हत्याकांड की हकीकत को मंजूर कर लिया है, तो झूठी दिलाशा में जी रहे पीड़ितों के घरों के सामने दिल दहला देने वाले मंजर दिखाई दे रहे हैं।
हालांकि सुषमा स्वराज ने हरजीत के बयान को झुठलाते हुए तर्क दिया था कि जब तक भारतीय नागरिकों की मौत की आधिकारिक पुष्टि नहीं हो जाती, तब तक उन्हें मृत घोषित नहीं किया जा सकता है। विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह ने भी इराक जाकर भारतीय राजदूत और इराकी अधीकारियों के साथ कई बैंठकें कीं और तलाशी अभियान भी चलाया। लेकिन इस्लामिक स्टेट के जिन आतंकियों ने जिस दुर्गम क्षेत्र में इस वीभत्स घटना को अंजाम दिया था, वहां वीके सिंह या भारत सरकार तो दूर उस समय इराक सरकार या उसकी सेना का पहुंचना भी नमुमकिन था।
वह ऐसा क्षेत्र था, जहां न भारत की कूटनीति कुछ काम कर सकती थी और न ही भारत की सैन्य क्षमता। यहां तक कि उस इलाके में भारत की गुप्तचर संस्थाएं भी उपस्थित नहीं थीं। गोया, साफ था कि जब संकटग्रस्त इराक अपने ही नागरिकों की रक्षा ठीक से नहीं कर पा रहा हो तो वह दूसरे देश के नागरिकों की रक्षा कैसे कर पाएगा ? हालांकि इसी दौर में, मोदी सरकार ने केरल की नर्सों को आतंकियों के चंगुल से मुक्त कराकर उन्हें भारत वापस लाने की ऐतिहासिक सफलता प्राप्त की थी। लेकिन ऐसा तब संभव हुआ, जब वह जीवित थीं। जबकि अगवा कर मार दिए गए भारतीयों की सूचना एक चश्मदीद गवाह दे रहा था। लेकिन उसकी सुनी नहीं गई।
इस मामले को महज एक आतंकी वारदात और सरकार के सफल या असफल प्रयासों के रूप में देखने के साथ इसकी पृष्ठभूमि की पड़ताल करने की भी जरूरत है। दरअसल यह घटना एक ऐसे आइने के रूप में भी पेश आई है, जो हमारे समाज, सरकार और बेरोजगारी का विद्रूप चेहरा पेश करती है। बेरोजगारी का आलम यह है कि देश का नौजवान युद्धग्रस्त क्षेत्र में भी नौकरी के लिए लालायित है। 25 से 30 हजार रुपए की नौकरी के लिए युवा दूर-देश में जाकर जान जोखिम में डाल रहे हैं।
ज्यादातर परिजनों को पता है कि इराक एक ऐसी मौत की घाटी है, जहां जीवन की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है। बावजूद जीवन-यापन के दबाव में पैसा कमाने की जो जुम्मेबारी है, उसमें विकल्प के रूप में क्या इराक ही शेष रह गया है ? साफ है, ऐसे विकल्प कोई भी नौजवान या उसके परिजन जान-बूझकर नहीं चुनते हैं, बल्कि आर्थिक मजबूरी उन्हें ऐसे कठिन रोजगार के विकल्प चुनने को मजबूर करती है। और युवक वैध अथवा अवैध तरीकों से भी इराक जैसे देशों में पहुंच जाते हैं। कुछ नौका दुर्घटनाओं और अन्य देशों के कंटेनरों में छुपकर जाते बेरोजगार युवाओं की दर्दनाक मौतों से ऐसी कड़वी सच्चाईयां सामने आती रही हैं। ये हकीकतें शाइनिंग इंडिया, नया भारत और बदलता इंडिया जैसे नारों की पोल खोल रही हैं।
भारत सरकार अपनी तरफ से विज्ञापनों के जरिए लगातार ऐसी चेतावनियां देती रहती है कि भारतीयों को कामकाज या नौकरियों के लिए किन-किन क्षेत्रों में जाना चाहिए और किनमें नहीं। किंतु अब ये विज्ञापन पर्याप्त नहीं कहे जा सकते हैं। दरअसल नौकरी के बहाने विदेश भेजने वाले ऐसे एजेंटों दलालों पर भी नकेल कसनी होगी, जो अशांत क्षेत्रों के लिए महिला एवं पुरुष नौजवानों की भर्ती करते हैं। असल में इन बेरोजगारों को यह बताया ही नहीं जाता कि उन्हें किस देश के किस शहर में नौकरी दी जा रही हैं।
उन्हें केवल अच्छी जगह, अच्छी नौकरी का भरोसा दिया जाता है। कई जगह तो ये दलाल ऐसे युवाओं को भी विदेश भेज देते हैं, जिनके पास पासपोर्ट और उस देश में काम करने का वर्किंग वीजा भी नहीं होता है। दलेर मेंहदी जैसे गायक कलाकार को तक मानव तस्करी के मामले में हाल ही में 2 साल की सजा सुनाई गई है।
वैसे भी किसी भी देश में चोरी-छिपे जाना और फिर वहां लंबे समय तक रहना आसान नहीं होता है। बावजूद लोग कानून का उल्लंघन कर जाते भी हैं, और दलाल भेजते भी हैं। साफ है, ऐसी एजेंसियों और दलालों पर प्रतिबंध के कड़े बंदोबस्त किए जाएं और इन पर सतत निगरानी भी रखी जाए। सबसे बेहतर तो यह है कि देश के नौजवानों को देश में ही रोजगार के नए-नए अवसर पैदा किए जाएं और उन्हें परंपरागत कामों से जोड़ा जाए। अन्यथा इस तरह की घटनाएं आगे भी पेश आती रहेंगी।
-प्रमोद भार्गव