स्वच्छ आबोहवा के लिए तय मौजूदा न्यूनतम मानदंडों का विश्व समुदाय संजीदगी से पालन करता, उससे पहले ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने सार्वजनिक स्वास्थ्य के सुरक्षा-मानक कड़े कर दिए हैं। गत दिवस जारी अपने नए वायु गुणवत्ता दिशा-निदेर्शों में संगठन ने सुरक्षित हवा के पैमानों को फिर से निर्धारित किया है। इससे पहले सन 2005 में इनमें संशोधन किया गया था। नए दिशा-निर्देशों के मुताबिक, अभी वैश्विक आबादी का 90 फीसदी हिस्सा और भारत में करीब-करीब शत-प्रतिशत लोग ऐसी हवा में सांस ले रहे हैं, जो डब्ल्यूएचओ के मानक पर खरी नहीं उतरती है। बहरहाल, इन दिशा-निर्देशों में सबसे अधिक तवज्जो पार्टिकुलेट मैटर (पीएम), यानी सूक्ष्म कणों को दी गई है। यह दुनिया भर में वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार है। 70 लाख के करीब मौतें अकेले इसी वजह से होती हैं।
विशेषज्ञ मानते हैं कि यहां की मौसम व जलवायु संबंधी परिस्थितियां जटिल हैं, जिनमें धुंध, गगनचुंबी इमारतों व बुनियादी ढांचे की वजह से क्षेत्र-विशेष में बढ़ते तापमान और अत्यधिक प्रदूषण से चुनौतियां बढ़ जाती हैं। आलम यह है कि प्रदूषणकारी गतिविधियों को रोक भी दें, तब भी केवल प्राकृतिक प्रक्रियाओं से हवा में काफी ज्यादा प्राकृतिक कार्बोनिक एरोसोल, यानी सूक्ष्म तरल बूंदों का निर्माण होता है। इन सबके अलावा, विभिन्न स्रोतों से होने वाले उत्सर्जन और चूल्हे पर खाना पकाने जैसी जीविकोपार्जन प्रक्रियाओं से पैदा होने वाले प्रदूषण को भी थामने की जरूरत है। सवाल यह है कि प्रदूषण को हम किस हद तक कम कर सकते हैं? वायु प्रदूषण कम करने को लेकर सरकारों की सतर्कता अधिकतर पराली जलाने और वाहनों का प्रदूषण स्तर जांच कर उन पर जुर्माना लगाने तक ही नजर आती है।
बड़े पैमाने पर प्रदूषण फैलाने वाले कल-कारखानों पर उनकी कृपादृष्टि ही बनी रहती है। भारत दुनिया के चुनिंदा देशों में है, जहां शायद सबसे अधिक कानून होंगे, लेकिन हम कितना कानून-पालन करने वाले समाज हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। दिल्ली एवं अन्य प्रांतों की सरकारें एवं केन्द्र सरकार हर प्रदूषण खतरों से मुकाबला करने के लिए तैयार है, का नारा देकर अपनी नेकनीयत का बखान करते रहते हैं। पर उनकी नेकनीयती की वास्तविकता किसी से भी छिपी नहीं है, देश की राजधानी और उसके आसपास प्रदूषण नियंत्रण की छीछालेदर होती रहती है। इस जटिल एवं जानलेवा समस्या का कोई ठोस उपाय सामने नहीं आता। लिहाजा, यह भी आसान नहीं है कि दक्षिण एशिया और विशेष रूप से भारत पीएम-2.5 के पांच और 15 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर के कठिन लक्ष्य को किस तरह से पा सकेगा?
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