भाषा की मर्यादा खोते राजनेता…

Dignity-of-Language
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मानते हैं हमारे संविधान का अनुच्छेद- 19 हमें और हमारे नेताओं को बोलने है की आजादी प्रदान करता है, लेकिन हमें क्या बोलना यह हमारे संस्कार तय करते हैं। साथ ही साथ संविधान का अनुच्छेद- 19(2) हमें कितना और किसके लिए किस लहजे में बोलना यह भी बताता है। फिर आजादी के चक्कर में अपने दायरे को क्यों भूल जात हैं? वैसे देखें तो देश में राजनेता न केवल आम जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं, अपितु राजनीति का अर्थ ही नेतृत्व करना होता। फिर ऐसे में राजनेताओं की देश के मान की रक्षा करने की जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है।

सोनम लववंशी

ततत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था पर दृष्टि डालें तो राजनीतिक सरगर्मी उफान पर है। सियासत के सुरमा जिक्र तो लोक कल्याण और समावेशी विकासों का करते है, लेकिन इक्कीसवीं सदी के बदलते भारत की राजनीति भी करवटें बदल रही है। विपक्ष तो विपक्ष सत्ता पक्ष भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कब राजनीति की नैतिकी और सिद्धांतों को धत्ता बता दे। यह पता ही नहीं चलता। ऐसे में अभिव्यक्ति के नाम पर अनर्गल बयानबाजी ने राजनीति की शुचिता आदि को तार-तार कर दिया हैं। बोल के लब आजाद है तेरे पंक्ति का शोर आजकल राजनैतिक आबोहवा में काफी गुंजित हो रहा… ऐसे में मालूम तो यही पड़ता कि जब मशहूर शायर फैज अहमद फैज ने इन पंक्तियों को लिखा होगा तो शायद ही कभी ये सोचा होगा कि देश के राजनेता उनकी इस पंक्ति के सहारे शब्दों की सारी मर्यादा लांघ जाएंगे।
आज विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र अमर्यादित भाषा के वायरस से पीड़ित हो चुका है। जो उसके लिए बहुत बड़ी विडंबना वाली बात है। राजनीति का अर्थ यह तो कतई नहीं होता कि सियासतदां एक-दूसरे के निजी जीवन पर आक्षेप करने लग जाएं। राजनीति सदियों से हमारे समाज का अंग रही है। फिर हमारे सियासत के सूरमा लोकतंत्र के भीतर राजनीति के सिद्धांतों को तिलांजलि क्यों दे रहें। आज जिस दौर में भारतीय राजनीति में भाषा की गिरावट अपने निम्नतम स्तर पर पहुँच गयी है। राजनेताओं के बोल बिगड़ते जा रहे हैं। उन्हें दूसरे राजनीतिक दल के नेताओं को बुरा बोलने में कोई बुराई नजर नहीं आती है। फिर सवालों की एक लंबी फेहरिस्त उत्पन्न होती है। क्या उसके उत्तर हमारे लोकतांत्रिक पहरुओं के पास हैं? पहला सवाल अभिव्यक्ति की आजादी ये तो नहीं कहती कि आप किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के मान को भंग करें? फिर आखिर ऐसा क्यों होता है? राजनीति निजी दुश्मनी अदा करने का कोई अखाड़ा भी नहीं। फिर अमर्यादित होने का क्या निहितार्थ? जब संवैधानिक व्यवस्था में राजनीति का जन्म देश को सुचारू रूप से आगे ले जाने के लिए हुआ। फिर मूल उद्देश्य को क्यों बिसार देते है राजनीति के सिपहसालार? इसके अलावा जब भाषा हमारे सामाजिक परिवेश का स्तर तय करती है। भाषा हमारी सोच का पैमाना होती है। तो राष्ट्रीय पार्टियों के सरीखे नेता बदजुबानी करके समाज और वैश्विक परिदृश्य को क्या यह दिखाना चाहते हैं कि हम तो जुबानी रूप से असभ्य हैं ही, इससे ही भारत भूमि के बारे में अंदाजा लगा लीजिए? अगर ऐसे कुछ विचार हमारे नेताओं के हैं तो उन्हें अपने बारे में न सोचकर एक मर्तबा देश की संस्कृति और परम्परा की तो सुध लेनी चाहिए खुले मंचों पर अमर्यादित बयानबाजी करने से, क्योंकि यह हमारे देश की छवि को निकृष्ट करने का कार्य करती है।
मानते हैं हमारे संविधान का अनुच्छेद- 19 हमें और हमारे नेताओं को बोलने की आजादी प्रदान करता है, लेकिन हमें क्या बोलना है यह हमारे संस्कार तय करते हैं। साथ ही साथ संविधान का अनुच्छेद- 19(2) हमें कितना और किसके लिए किस लहजे में बोलना यह भी बताता है। फिर आजादी के चक्कर में अपने दायरे को क्यों भूल जाते है? वैसे देखें तो देश में राजनेता न केवल आम जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं, अपितु राजनीति का अर्थ ही नेतृत्व करना होता। फिर ऐसे में राजनेताओं की देश के मान की रक्षा करने की जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है। फिर उस दायित्व को वे क्यों भूल जाते है? यह समझ से परे है। एक मिनट के लिए राजनीति को दरकिनार करके बात करते हैं। छोटे बड़े का मान-सम्मान करना तो हमारी पुरातन संस्कृति का हिस्सा सदैव रहा है। फिर लोक जीवन में तो इसका महत्व और बढ़ जाता है। लेकिन हमारे देश के नेताओं को पता नहीं किसकी नजर लग गई है, कि वे एक-दूसरे पर बदजुबानी करने से बाज नहीं आते। इक्कीसवीं सदी में यह वायरस और तेजी से बढ़ रहा, जो काफी चिंताजनक है। आज दूसरे दल के नेताओं के प्रति सम्मान समाप्त हो रहा है। एक राजनीतिक बदजुबानी की बानगी पेश करते हैं। देश की सबसे पुरानी पार्टी के अध्यक्ष जब देश के प्रधानसेवक को डंडे से मारने की धमकी दे दे, तो यह समझा जा सकता है कि देश किस दिशा में बढ़ रहा है। सीधे शब्दों में कहें तो कुर्सी का खेल मुगलई दौर का होता जा रहा। बनिस्बत अंतर इतना है, तब तलवार का बोलबाला था और आज संवैधानिक लोकतंत्र में अलोकतांत्रिक बदजुबानी का।
यहां एक बात स्पष्ट हो। राजनेताओं के बोल बिगड़ने का यह मसला कोई नया नहीं है। देश की आम सड़कों से लेकर चुनावी सभाओं तक राजनेताओं के बोल असंयमित होते जा रहे हैं। राजनेता अब चुनावी वादों से चुनाव जीतने की बजाय विपक्षी दल पर अभद्र टिप्पणी के जरिये चुनावी रण फतह करने की राह में आगे बढ़ रहे हैं और उनके इन सपनों को साकार करने में हर मीडिया बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं। टीवी और सोशल मीडिया इस दुष्प्रचारक का न सिर्फ गवाह बना है, बल्कि इसके विस्तार में भी अहम भूमिका निभा रहे हैं। बड़ा सवाल यह नहीं कि किसने क्या कहा। सवाल उसके हो जाने के बाद के रिएक्शन का है । डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था कि ‘‘लोकराज, लोकलाज से चलता है।’’ आज प्रखर समाजवादी नेता के विचारों को उन्हीं के खेवनहार डुबो रहे यह बड़े ताज्जुब की बात है।
यहां अतीत के पन्नो में जाकर देखें तो सन 1964 में लोकसभा में आचार्य कृपलानी ने अविश्वास प्रस्ताव पेश करते हुए कहा कि- जवाहरलाल कहते हैं कि चीन ने जो हमारी जमीन छीनी है, वहां कुछ पैदा नहीं होता था। जवाहरलाल के सिर पर भी बाल नहीं तो क्या उनकी गर्दन काट लें? अगर यहीं से राजनीति में बदजुबानी के युग की शुरूआत मान लें तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगा। ये सिलसिला आज तक चला आ रहा है। पहले समाजवादी पार्टी पर ही आरोप लगते थे कि उनकी भाषा मर्यादित नहीं है , लेकिन वर्तमान समय की बात करें तो हर राजनीतिक दल ने भाषा की सारी मर्यादा को पार कर दिया है। देश की सेना से लेकर देश के प्रधानसेवक तक पर असभ्य टिप्पणियां की जाने लगी हैं। महिलाओं के प्रति तो मर्यादा की सारी सीमाओं को नेता पहले से ही पार करते आएं हैं, लेकिन अफसोस कि उन्हें इसमें न ही कोई बुराई नजर आती और न ही माफी मांगते हैं।
ऐसे में अगर इक्कीसवीं सदी में राजनेता अपनी राह से भटक गए हैं। तो उन्हें सही राह दिखाने का काम अवाम को उठाना होगा। उन्हें याद दिलाना होगा, कि लोकतंत्र में जुबानी तीर का कोई औचित्य नहीं, बल्कि देश की भलाई का कार्य करना होगा। इसके अलावा अगर चुनाव आयोग शक्ति से ऐसे नेताओं से पेश आएं जो राजनैतिक बदजुबानी करते हैं। उनके चुनावी भविष्य पर विराम आदि लगाने जैसी कुछ व्यवस्था करें तो शायद अमर्यादित बोल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम आने बन्द हो जाएं।

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