गद्दी और गद्दारी: दल-बदल का पाप

Gaddi and betrayer

इस बरसात के मौसम में पार्टियों में विभाजन की बरसात हो रही है। कोई नहीं जानता कि कौन किधर कूद रहा है क्योंकि दोस्त और दुश्मन सब एक बन गए हैं और इसका कारण यह है कि सत्ता में आने के लिए निर्वाचित विधायकों को लुभाना और उन्हें स्वीकार करना सबसे आसान रणनीति बन गयी है और इन कृत्रिम समीकरणों से हमें यह विश्वास दिलाया जा रहा है कि साध्य साधन को उचित ठहराता है।

आज दल-बदल आम बात बन गयी है। पिछले सप्ताह भारत कांग्रेस और जद (एस) के 15 विधायकों की खरीद-फरोख्त का गवाह बना है जिसके चलते कुमारास्वामी सरकार का पतन हुआ तो येदुरप्पा की भाजपा सरकार सत्ता में आयी। यह अलग बात है कि उसके बाद भी विधान सभा अध्यक्ष ने इन विधायकों को अयोग्य ठहरा दिया है और उनके अयोग्य ठहराने के कारण वे अब इस विधान सभा के शेष कार्यकाल तक चुनाव नहीं लड़ सकते या किसी भी पद को धारण नहीं कर सकते। क्या आप इस घटनाक्रम से चौंक गए हैं, आहत हुए हैं? बिल्कुल नहीं। पिछले एक माह में हमने देखा है कि राज्य सभा में तेदेपा के 4 सदस्य भाजपा में शामिल हो गए और गोवा मे कांग्रेस के 15 सदस्य भाजपा के साथ जुड़ गए और उसके बाद तीन विधायकों को तो आनन-फानन में मंत्री बना दिया गया और यह सब कानून के अनुसार हुआ क्योंकि यह दल-बदल रोधी कानून की दो तिहाई सीमा को पूरा करता है। ये दोनों उदाहरण बताते हैं कि 10वीं अनुसूची में गंभीर खामी है जिसके अंतर्गत एक तिहाई सदस्यों को विधायी दल में विभाजन की अनुमति दी गयी है और उन पर अयोग्यता का तमगा भी नहीं लगता है।

मूल कांग्रेस या तेदेपा में विभाजन नहीं हुआ है न ही इसके विधायी पार्टी या संसदीय पार्टी में विभाजन हुआ है। तो फिर 10 विधायक या 4 सांसद किस तरह विलय कर सकते हैं? तेदेपा की संसदीय पार्टी में 9 सांसद हैं जिनमें से तीन लोक सभा में और 6 राज्य सभा में हैं और इसलिए अयोग्यता से बचने के लिए दो तिहाई सदस्यो के लिए 6 सांसद चाहिए और इसलिए यदि केवल चार सदस्यों ने दल-बदल किया है तो उन्हें अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए और इसे विलय नहीं माना जाना चाहिए। 2017 में भाजपा अरूणाचल प्रदेश में तब सत्ता मे आई जब मुख्यमंत्री खांडू ने दल-बदल किया और यही स्थिति मणिपुर, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड, गुजरात और महाराष्ट्र में देखने को मिल रही है जहां पर अनेक सदस्य दल-बदल कर रहे हैं।

एक नई स्थिति देखने को मिल रही है जहां पर अध्यक्ष दल-बदल के मामलों में निर्णय लेने में विलंब कर रहे हैं। तेलंगाना में कांग्रेस के 18 विधायकों में से 12 विधायक तेलंगाना राष्ट्र समिति में शामिल हो गए और उनमें से दो को मंत्री भी बना दिया गया क्योंकि अध्यक्ष ने उनके दल-बदल के मामलों में निर्णय में विलंब किया। दल-बदल की राजनीति में मंत्री पद का वितरण एक आसान उपाय है। इसी तरह 2014 से 2019 के बीच वाईएसआर कांग्रेस के 23 विधायक तेदेपा में शामिल हुए किंतु उनमें से किसी को भी अयोग्य घोषित नहीं किया गया और इसके चलते भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के बजाय भ्रष्टाचार बढ जाता है।

वस्तुत: सांसदों और विधायकों की खरीद-फरोख्त के लिए सभी राजनीतिक दल दोषी हैं। उदाहरण के लिए भगोड़ा विजय माल्या भाजपा, कांग्रेस, जद (एस) सभी का प्रिय रहा है और इन सब ने उसे कर्नाटक से राज्य सभा में निर्दलीय सदस्य बनाया। 2002 में कांग्रेस और जद (एस) ने और 2010 में भाजपा और जद (एस) ने उसका समर्थन किया। प्रश्न उठता है कि क्या दल-बदल एक संवैधानिक पाप है? वर्ष 2017 में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रावत के मामले में उच्चतम न्यायालय ने ऐसी ही टिप्पणी की थी कि अपवित्र धोखाधड़ी को विलय या बड़े पैमाने पर दल-बदल का नाम दिया जा रहा है और इन सदस्यों को संवैधानिक रूप से स्वीकार भी किया जाता है और इसका विचारधारा, नैतिकता और नैतिक मूल्यों से कोई संबंध नहीं होता है। संविधान में दल-बदल का निषेध है किंतु राजनीतिक मजबूरियों, सुविधा और अवसरवादिता की राजनीति के चलते दल-बदल होता है। ऐसे विधायकों को धमकी दी जाती है, धन बल से लुभाया जाता है या बाहुबल से ड़राया जाता है। कल तक ऐसी बातें चुनाव पूर्व दिखायी देती थी किंतु अब ये सांठगांठ की राजनीतिक रणनीति बन गयी है।

अध्यक्ष भी अपनी राजनीतिक विचारधारा के शिकार बन रहे हैं जिसके चलते उनके संवैधानिक पद पर आंच आ रही है। अध्यक्ष की पार्टी के हित के विरुद्ध शिकायतों पर कार्यवाही नहीं की जाती या उनकी सुनवाई में विलंब किया जाता है। दल-बदल रोधी कानून में अध्यक्ष द्वारा विलंब या कार्यवाही न करने के बादे में कोई प्रावधान नहीं है और दल-बदल का दंड तब मिलता है जब दल-बदल करने वाला विधायक सरकार को अस्थिर कर देता है।

इससे प्रश्न उठता है कि क्या यह कानून के अनुसार दल-बदल एक जानबूझकर किया जाने वाला षड़यंत्र है जिसके चलते हेराफेरी द्वारा दल-बदल कराया जाता है। न्यायालय तभी हस्तक्षेप कर सकता है जब अध्यक्ष अपना निर्णय देता है। अनेक मामलों में न्यायालय ने दल-बदल की याचिकाओं पर अत्यधिक विलंब में चिंता व्यक्त की है और ऐसी याचिकाओं का निर्णय अक्सर सदन के कार्यकाल के अंत मे किया जाता है। इसलिए ऐसे वातावरण में जहां पर राजनीतिक दलों की संख्या दिनों दिन बढती जा रही है विभाजन और दल-बदल नियम बन गया है

और जिसके चलते विधायक खरीदना चुनाव लड़ने से अधिक आसान हो गया है और ऐसा विक्रेता विधायक उस पार्टी में शामिल हो जाता है जो उसे सबसे ऊंची कीमत देती है और इस क्रम में वह किंगमेकर बन जाता है। यह सच है कि केन्द्र में अधिक निर्दलीय सांसद नहीं हैं और न ही वे सत्ता संतुलन को प्रभावित कर सकते हैं किंतु राज्यों में अनेक बागी विधायक निर्दलीय के रूप में चुनाव जीतते हैं और अनेक क्षेत्रीय पार्टियों के उदय के चलते अल्पमत और बहुमत का अंतर बहुत कम रह गया है और इसलिए सरकार बनाने में निर्दलीय विधायकों की भूमिका निर्णायक हो जाती है। इसलिए इस पर भी प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए कि यदि वह निर्वाचित होने के बाद किसी पार्टी के साथ गठबंधन करता है और यदि बाद में वह पाला बदल देता है तो यह जनादेश के विरुद्ध है।

पार्टी बदलना राजनीति का हिस्सा है किंतु हमें सिद्धान्त और सिद्धान्तविहीन राजनीति में अंतर करना होगा। वर्तमान कानून दल-बदल तथा धन-बल या पद के लालच के प्रभाव को कम करने में विफल रहा है। इसलिए विधायी सुधार किए जाने चाहिए और दल-बदल रोधी कानून को मजबूत बनाया जाना चाहिए। हालांकि यह एक राजनीतिक समस्या के समाधान के लिए कानूनी समाधान लागू करने के समान होगा। कुल मिलाकर दल-बदल और विभाजन की समस्या का प्रभावी ढंग से निराकरण किया जाना चाहिए। विशेषकर इसलिए कि हम भारतीय दल-बदल करने के लिए कुख्यात हैं। गद्दी और गद्दारी साथ साथ नहीं चलनी चाहिए। क्या हम सिद्धान्तों की राजनीति अपनाने और राजनीतिक पाप के अंत की आशा कर सकते हैं?
पूनम आई कौशिश

 

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