कुपोषण बनाम जिन्दगी की जंग

Malnutrition,  Jindagi, Jung

रमेश सर्राफ धमोरा

भारत की बढ़ती जनसंख्या में काफी बच्चे कुपोषण के कारण मर जाते हैं। यहां कुपोषण एक तरह से जीवन का हिस्सा बन गया है। इस क्षेत्र के बच्चे या अन्य क्षेत्रों के कुपोषित बच्चे अगर बच भी जाते हैं तो उपयुक्त पोषण न मिल पाने के कारण उनके शरीर और दिमाग को काफी हानि पहुंच चुकी होती है। 5 वर्ष से कम उम्र के लगभग 4 करोड़ 40 लाख बच्चों का विकास कुपोषण के कारण अवरूद्ध हो जाता है।

वे पढ़ाई नहीं कर पाते और जल्दी ही जीविकोपार्जन में लग जाते हैं। किसी भी समाज की खुशहाली का अनुमान उसके बच्चों और माताओं को देख कर लगाया जा सकता है। पर जिस समाज में हर साल तीन लाख बच्चे एक दिन भी जिंदा नहीं रह पाते और करीब सवा लाख माताएं हर साल प्रसव के दौरान मर जाती हैं, उस समाज की दशा का अंदाजा लगाया जा सकता है। जब देश में आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं की कोई कमी नहीं है, तब ऐसा होना शर्मनाक ही नहीं एक घृणित अपराध है। कुपोषण के मामले में भारत दक्षिण एशिया का अग्रणी देश बन गया है।

भारत में पांच वर्ष से कम आयु के 21 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। देश में बाल कुपोषण 1998-2002 के बीच 17.1 प्रतिशत था, जो 2012-16 के बीच बढकर 21 प्रतिशत हो गया। दुनिया के पैमाने पर यह काफी ऊपर है। एक रपट के मुताबिक पिछले 25 सालों से भारत ने इस आंकड़े पर ध्यान नहीं दिया और न ही इस स्थिति को ठीक करने की दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रगति हुई है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2017 में शामिल जिबूती, श्रीलंका और दक्षिण सूडान ऐसे देश हैं, जहां बाल कुपोषण का आंकड़ा 20 प्रतिशत से अधिक है।

आंकड़े बताते हैं कि पोषण की कमी का नतीजा होता है बाल कुपोषण और ऐसे बच्चे संक्रमण के आसानी से शिकार हो जाते हैं, इनका वजन तेजी से कम होने लगता है और इन्हें स्वस्थ होने में बहुत समय लगता है। एक वैश्विक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत कुपोषण की गंभीर समस्या से ग्रस्त है। इस रिपोर्ट के अनुसार देश में मां बनने की उम्र वाली आधी महिलाएं खून की कमी से पीड़ित हैं। वैश्विक पोषण रिपोर्ट 2017 में भारत सहित 140 देशों में कुपोषण की स्थिति पर गौर किया गया।

रिपोर्ट के मुताबिक इन देशों में कुपोषण के तीन महत्वपूर्ण रूप हैं जिनमें बच्चों में विकास की कमी, मां बनने की उम्र वाली महिलाओं में खून की कमी और अधिक वजन वाली वयस्क महिलाएं शामिल हैं। ताजा आंकड़ों के अनुसार पांच वर्ष से कम के 38 प्रतिशत बच्चे विकासहीनता से प्रभावित हैं जिसमें बच्चों की लंबाई पोषक तत्वों की कमी के कारण अपनी उम्र से कम रह जाती है और इससे उनकी मानसिक क्षमता पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

भारत सरकार की एजेंसी राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के ताजा आंकड़ों के अनुसार देश में कुल 93.4 लाख बच्चे गंभीर रूप से कुपोषण के शिकार हैं। सरकार द्वारा देशभर के 25 राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में कुल मिलाकर 966 पोषण पुनर्वास केंद्र संचालित किये जा रहे हैं। पोषण पुनर्वास केंद्रो पर 2015-16 में लगभग 1,72,902 बच्चों को भर्ती कराया गया था। उनमें से 92,760 सफलतापूर्वक बचाया गया था। सरकार के अनुसार राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत पोषण पुनर्वास केंद्र की स्थापना सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में वृद्वि के लिये की गई है, ताकि गंभीर रूप से कुपोषण से ग्रस्त और चिकित्सीय जटिलताओं वाले बच्चों के इलाज के लिए उन्हें भर्ती कराया जा सके।

बच्चों को वहां चिकित्सा और पोषण चिकित्सीय देखभाल की भी सुविधा दी जाती है। यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुपोषण के कारण पांच साल से कम उम्र के करीब दस लाख बच्चों की हर साल मौत हो जाती है। सामाजिक कार्यकतार्ओं का कहना है कि कुपोषण को चिकित्सीय आपातकाल करार दिया जाए क्योंकि, ये आंकड़े अति कुपोषण के लिए आपातकालीन सीमा से ऊपर हैं। कुपोषण की समस्या हल करने के लिए नीति बनाने और उसके क्रियान्वयन के लिए पर्याप्त बजट की आवश्यकता है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि कुपोषण के शिकार बच्चों की संख्या भारत में दक्षिण एशिया के देशों से बहुत ज्यादा है। केन्द्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की देख-रेख में हुए सर्वे में पता चला है कि बिहार में सिर्फ 7.5 प्रतिशत बच्चों को ही पर्याप्त आहार और पोषण मिल पाता है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के आंकड़ों पर आधारित गैर सरकारी संगठन चाइल्ड राइट एंड यू क्राय के अध्ययन में पता चला है कि उत्तर प्रदेश में भी 10 में से 9 बच्चों को पर्याप्त आहार और पोषण नहीं मिलता। राज्य में महज 5.3 प्रतिशत बच्चों को ही पर्याप्त आहार और पोषण मिल पाता है। यह आंकड़ा पूरे देश में सबसे कम है। अध्ययन में यह बात भी सामने आई है कि उत्तर प्रदेश में जन्म के पहले घंटे में चार में से तीन बच्चों को मां का दूध नहीं मिल पाता। राज्य में जन्म लेने वाले छह से 59 महीनों के दो तिहाई बच्चे एनीमिया के शिकार होते हैं।

राजस्थान के बारां और मध्यप्रदेश के बुरहानपुर में एक अध्ययन से पता चला है कि देश के गरीब इलाकों में बच्चे ऐसी मौतों का शिकार होते हैं, जिन्हें रोका जा सकता है। यह रिपोर्ट कुपोषण की स्थिति पर रोशनी डालती है। इसमें उन स्थितियों का विश्लेषण किया गया है, जिन्हें रोका जा सकता है, जिनके कारण भारत में नवजात शिशुओं और बच्चों की मौत होती है। संयुक्त राष्ट्र बाल कोष के अनुसार भारत में प्रतिदिन 3000 बच्चे कुपोषण के कारण मौत का शिकार हो जाते हैं। भारत को विश्व की तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले देशों में गिना जा रहा है, किन्तु दूसरी ओर यह विश्व में सबसे ज्यादा कुपोषण से ग्रस्त देश भी है। कुपोषण के कारण जिन बच्चों की क्षमता पर्याप्त विकसित नहीं हो पाती, उनके कारण 2030 तक भारतीय अर्थव्यवस्था को लगभग 46 करोड़ डॉलर की हानि होगी। भारत को कुपोषण के कारण अपने सकल घरेलू उत्पाद के करीब चार फीसदी की क्षति होती है।

उद्योग संगठन एसोचैम और कंसल्टेंसी फर्म ईवाई की ओर से संयुक्त रूप से प्रकाशित एक शोध पत्र में कहा गया है कि महिलाओं और बच्चों पर ज्यादा खर्च करने की जरूरत है। दुनिया के करीब 50 फीसदी कुपोषित बच्चे भारत में हैं। शोध पत्र में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के आंकड़ों का जिक्र किया गया है, जिसमें छह से 59 महीने के करीब 60 फीसदी बच्चों को रक्तहीनता से पीड़ित बताया गया है। रिर्पोट के मुताबिक भारत में सिर्फ 10 फीसदी बच्चों को पर्याप्त भोजन मिल पाता है। महिलाएं और लड़कियों की स्थिति भी रोजाना पोषण की खुराक के मामले में ठीक नहीं है, जबकि उनके लिए केन्द्र सरकार ने प्रमुख कार्यक्रम शुरू किए हैं।

15 से 49 साल उम्र वर्ग में 58 फीसदी गर्भवती और 55 फीसदी महिलाएं जो गर्भवती नहीं हैं, रक्तहीनता से पीड़ित हैं।
भारत में कुपोषण को दूर करने के लिए अनेक प्रयास किए जा रहे हैं। आयोडिन युक्त नमक, विटामिन ए एवं आयरन सप्लीमेंट, स्तनपान आदि कुछ ऐसे उपाय किए जा रहे हैं जो सकारात्मक दृष्टि देते हैं। स्वच्छ भारत मिशन की सफलता ने भी कुपोषण की राह में एक कदम आगे बढ़ाया है। उम्मीद है कि कुपोषण की शर्मनाक स्थिति से भारत जल्दी ही छुटकारा पा सकेगा। सरकार का रवैया इस दिशा में कोई खास उत्साहजनक नहीं है। देश के सकल घरेलू उत्पाद का 1.4 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया जाता है, जो कि काफी कम है। इसे बढ़ाने की जरूरत है। देश में स्वास्थ्य सेवाओं को दूरस्थ गांव-देहात तक पहुंचाना होगा और देश के हर नागरिक को समय पर पर्याप्त चिकित्सा सुविधा मिलना सुनिश्चित करना होगा। तभी भारत में नवजात शिशुओं की मौत पर रोक लगाई जा सकती है।

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