कश्मीर में मोदी नीति से बेचैन हुई महबूबा!

Kashmir Modi restless Mehbooba!

केंद्र सरकार ने आतंकवाद निरोधक अभियानों और कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए कश्मीर घाटी में केंद्रीय बलों के करीब 10 हजार अतिरिक्त जवानों को भेजने का आदेश दिया है। सरकार के इस फैसले के बाद से ही सूबे में हलचल तेज हो गई है और लोगों के मन में तमाम सवाल दौड़ रहे हैं। आपको बता दें कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के जम्मू-कश्मीर से लौटने के तुरंत बाद जवानों की रवानगी का यह आदेश आया है। सरकार के इस फैसले पर सियासी बयानबाजी भी शुरू हो गई है। अतिरिक्त जवानों की तैनाती के केन्द्र सरकार के फैसले ने कश्मीरी नेताओं को बेचैन कर दिया है।

पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने इसका विरोध करते हुए ट्वीट किया है कि केन्द्र घाटी में डर का माहौल पैदा कर रहा है। बीती 25 जुलाई को गृह मंत्रालय ने एक आदेश जारी किया कि कश्मीर में सुरक्षा बलों के 10,000 अतिरिक्त जवान तैनात किए जाएंगे। सैनिकों और जवानों की तैनाती, एक जगह से दूसरी जगह कूच करना एक सामान्य प्रक्रिया है। गृह मंत्रालय का यह फैसला राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के कश्मीर से लौटने के बाद लिया गया। डोभाल ने कश्मीर में सुरक्षा और खुफिया अफसरों से बातचीत की और फिर यह फैसला सामने आया। चूंकि संदर्भ कश्मीर का है, लिहाजा अति संवेदनशील बन जाता है। हालांकि कश्मीर में 1953 से ही सेना और सुरक्षा बलों की तैनाती, सक्रियता जारी रही है।

वहां पहले से ही सशस्त्र दस्ते हैं और अपने अभियान जारी रखे हैं, तो यह सवाल स्वाभाविक है कि सीआरपीएफ की 50, एसएसबी की 30, बीएसएफ और आईटीबीपी की 10-10 कंपनियां, यानी 100 कंपनियों के 10,000 जवान, तैनात क्यों किए जा रहे हैं? क्या कोई बड़ी कार्रवाई विचाराधीन है? क्या कश्मीर में अनुच्छेद 370 और 35-ए को खत्म करने की भूमिका तैयार की जा रही है? क्या भारत सरकार पाक अधिकृत कश्मीर में अपना कब्जा लेने के लिए कोई बड़ा आपरेशन करने जा रही है, जैसा कि सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने ‘कारगिल विजय दिवस’ की अपनी हुंकार में संकेत दिया था? क्या कश्मीर में किसी महत्त्वपूर्ण राजनीतिक फैसले-चुनाव आदि से पहले माहौल बनाने की कवायद है? अथवा आतंकियों के नेटवर्क को ध्वस्त करके कानून-व्यवस्था को सामान्य बनाने की रणनीति है? तैनाती की बुनियादी वजह इन्हीं में से कोई एक है, लेकिन यह एक आम-सामान्य कवायद नहीं है, लिहाजा महबूबा मुफ्ती सरीखे कश्मीरी सियासतदानों का उछलना और किलसना स्वाभाविक है।

आईएएस अफसर की नौकरी छोड़ सियासत में आए और अब जेकेपीएम के अध्यक्ष शाह फैसल ने भी अनुच्छेद 370 और 35-ए को लेकर आशंकाएं जताई हैं। कश्मीर के हालात बेहद नाजुक हैं। अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने कश्मीर को सबसे खतरनाक जगह करार दिया था। बहरहाल आतंकवाद और आतंकियों को लेकर जनरल रावत ने स्पष्ट बयान दिया है कि यदि अब किसी भी आतंकी ने बंदूक उठाई, तो उस आतंकी को कब्र में गाड़ दिया जाएगा और बंदूक हम हासिल कर लेंगे। नेशनल कॉन्फ्रेंस के उपाध्यक्ष और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी ‘डर का माहौल’ बनाने का आरोप लगाया है। नेशनल कॉन्फ्रेंस के महासचिव अली मोहम्मद असगर ने कहा है कि एक तरफ केंद्र और राज्यपाल कश्मीर के हालात सुधरने की बात कर रहे हैं और दूसरी ओर अतिरिक्त सैनिक घाटी में भेजे जा रहे हैं।

इस नई नीति के मद्देनजर मौलवियों के साथ-साथ कथित आतंकियों के माता-पिता, भाई-बहन और पड़ोसियों, सगे-संबंधियों को समझाया जा रहा है। यानी आतंकवाद के खिलाफ अभियान अब नए रूप में भी सामने आएगा। हालांकि ‘आपरेशन आॅलआउट’ के बावजूद 2018 में आतंकवाद करीब 80 फीसदी बढ़ा है और 191 कश्मीरी नौजवान आतंकी संगठनों में शामिल हुए हैं, लेकिन 2019 में ही जुलाई माह तक 128 आतंकियों को मारा जा चुका है। चूंकि कारगिल युद्ध की 20वीं वर्षगांठ अभी मनाई गई है, लिहाजा 1999 से आज तक का विश्लेषण करें, तो 14,351 आतंकी घटनाएं हुई हैं, जिनमें 14000 से ज्यादा आतंकी ढेर किए गए, लेकिन 4198 पराक्रमी जवान भी ‘शहीद’ हुए हैं।

यह रिकॉर्ड गृह मंत्रालय का है। अहम सवाल तो यह है कि अतिरिक्त 10,000 जवान कश्मीर में तैनाती के बाद क्या करेंगे? हमारा आकलन है कि मोदी सरकार और चुनाव आयोग इसी साल जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव कराने के पक्षधर हैं। अति संवेदनशील और आतंकग्रस्त राज्य होने के कारण यह तैनाती की जा रही होगी, ताकि चुनाव का माकूल माहौल बन सके, लेकिन कश्मीर में एक तबका ऐसा है, जो कश्मीर को एक सियासी मसला मानता है और सेना, सुरक्षा बलों को कोई समाधान नहीं मानता। वह तबका कश्मीर के संदर्भ में पाकिस्तान से भी बातचीत करने का लगातार आग्रह करता रहा है। गृहमंत्री अमित शाह बार-बार दोहराते रहे हैं कि वे दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के फार्मूले जम्हूरियत, कश्मीरियत और इनसानियत पर ही चलकर कश्मीर समस्याओं के हल खोज रहे हैं। मोदी सरकार और भाजपा की लड़ाई कश्मीर में फैले आतंकवाद से है, न कि कश्मीरियों से है। सरकार कश्मीर को आतंकवादमुक्त कराने को संकल्पबद्ध है, लेकिन सरकार की ओर से किसी भी प्रवक्ता ने स्पष्ट नहीं किया कि कश्मीर में 10,000 अतिरिक्त जवान क्यों भेजे जा रहे हैं। कहीं कोई ‘छिपा एजेंडा’ तो नहीं है सरकार का?

सरकार मानती है कि अगर विकास की बयार घाटी में चलेगी तो वहां के युवा मुख्यधारा में तेजी से लौटेंगे। राज्यपाल सत्यपाल मलिक की अभी हाल ही में उस बयान की काफी चर्चा हुई जब उन्होंने युवाओं से हथियार फैंक कर नाश्ते की टेबुल पर आमंत्रित किया था। इस नए टेरर मॉनिटरिंग ग्रुप की काफी चर्चा हो रही है क्योंकि इसका टारगेट टेरर फंडिंग पर रोक लगाना रहेगी। यह टेरर फंडिग ही वह सूत्र है जिसके कारण कश्मीर में आतंकवाद को फलने-फूलने का मौका मिला है। और जब इस पर कड़ी चोट को किया जाएगा तो आतंक कराह उठेगी। जो इसका लक्ष्य है। यही नहीं वहां के स्थानीय दलों की पाकिस्तान प्रेम को लेकर मोदी सरकार की स्पष्ट नीति से यह साफ झलकता है कि वैसे इन दलों को भी आने वाले दिनों में अपने पाक-प्रेम का राग छोड़ना पड़ेगा। वरना हाशिए पर जा चुके इन दलों को वहां के लोगों का साथ भी मिलना बंद हो जाएगा।

यह बात तो सच है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जम्मू और कश्मीर को आतंक मुक्त बनाने के लिए जो भी जरुरी कदम उठाने चाहिए उसमें त्वरित निर्णय लेकर आगे बढ़ने में देरी नहीं लगाई। हालांकि उनके कश्मीर से धारा 370 और 35 । हटाने और अभी हाल ही में नए गृह मंत्री अमित शाह के परिसीमन फिर से कराने पर कभी हां कभी नां को लेकर सस्पेंस भी है। लेकिन अमित शाह के गृहमंत्री का पदभार संभालने के बाद आतंकवाद को लेकर टैरर मॉनिटरिंग ग्रुप बनाने का निर्णय लिया इससे साफ झलकता है कि सरकार कितनी संजीदा है।

डॉ. श्रीनाथ सहाय

 

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