क्यों जानलेवा साबित होती जा रही है गर्मी?

Summer, Proven, Deadly

उत्तर तथा मध्य भारत समेत कमोबेश पूरा देश भीषण गर्मी की चपेट में है। देश के कई राज्यों में पारा 45 डिग्री सेल्सियस के पार जा चुका है। मौसम विभाग के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में गर्मी ने पिछले दस साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। दुखद यह है कि सूरज की यह तपिश धीरे-धीरे जानलेवा साबित होती जा रही है। सूरजदेव के सितम के आगे लोग बेदम नजर आ रहे हैं।

उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, मध्यप्रदेश और दिल्ली जैसे राज्यों में दर्जनों लोगों का तपिश से मर जाना भी किसी राष्ट्रीय चिंता से कम नहीं है। लगातार चलती गर्म हवाओं (लू) ने लोगों को अपने घरों में दुबकने को मजबूर कर दिया है। कई शहर, जो आए दिन भीषण जाम का सामना करते थे, आज वहां दोपहर के समय कर्फ्यू जैसे हालात हैं। बाजार से भीड़ गायब है, सड़कें सुनी हो गई हैं।

सूरज की तेज किरणें, सूखे और पेयजल संकट की मार झेल रहे भारतीयों पर दोहरी मुसीबत साबित हो रही है। सूरज की यह तपिश जैसे-जैसे बढ़ेगी, पेयजल संकट और अधिक गहराता जाएगा। सूखा व पेयजल संकट के कारण देश के अनेक इलाकों में स्थिति भयावह होती जा रही है। दरअसल, तापमान के 40 से 50 डिग्री पर पहुंचने से आम जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। वहीं, बिजली की आंखमिचौली के कारण लोगों की नींद और चैन हराम हो गई है। सूरज की तपिश और उमस के आगे लोग बिलबिला रहे हैं।

बिजली हमारे दैनिक जीवन को प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करती है, इसलिए अनियमित बिजली आपूर्ति के कारण समाज के सभी वर्ग के लोगों पर इसका नकारात्मक असर पड़ रहा है। एक तरफ, अघोषित बिजली कटौती से कामकाजी लोगों की श्रम-उत्पादकता प्रभावित हो रही है, तो दूसरी तरफ बच्चों की पढ़ाई तथा घरेलू कामकाज भी बाधित हो रहे है। दिहाड़ी मजदूरों, किसानों और अनौपचारिक क्षेत्र के कर्मचारियों के लिए दिन में काम पर निकलना मुश्किल हो गया है।

इंसानों की तरह बेजुबान जानवरों और परिंदों पर भी यह मौसम कहर ढा रहा है। उनके समक्ष भी चारे और पेयजल संकट तथा छायादार स्थान खोजने की चुनौती है। वे पक्षी और जानवर जो पालतू नहीं हैं, वे भोजन और पानी का प्रबंध जेठ की इस तपती दोपहरी में कैसे करेंगे, यह भी सोचनीय है। वहीं, गर्म हवाओं के चलने से खेत-खलिहानों और कच्चे घरों में आगजनी की घटनाएं भी आम हो चुकी हैं। कुछ प्रदेशों में दर्जनों घर जलकर स्वाहा हो चुके हैं, जबकि दावानल के कारण वन नष्ट हो रहे हैं।

इन विषम हालातों को देखते हुए ऐसा लगता है, मानो पृथ्वी हमारी सहनशीलता की परीक्षा ले रही है। आखिर, इस आपदा के लिए कहीं न कहीं मानव का प्रकृति से अनियंत्रित छेड़छाड़ ही तो जिम्मेदार है। देखना दिलचस्प होगा कि मानव जाति प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित दोहन से उत्पन्न विनाश के मंजर को कब तक झेल पाता है?

गौरतलब है कि हमारी पृथ्वी, सौरमंडल का इकलौता ग्रह है, जहां जीवन जीने की अनुकूल परिस्थितियां विद्यमान हैं। यहां, हम खुली हवा में सांस लेते हैं। शुद्ध पेयजल पीते हैं और आराम से जीवन गुजारते हैं। बावजूद इसके, वृक्षारोपण, जल-संरक्षण व पर्यावरण संरक्षण से जुड़े विषय आज केवल वैचारिकी तक ही सीमित रह गये हैं अथवा संविधान के अंतर्गत वर्णित ‘मूल कर्तव्यों’ की सूची में एक तत्त्व के रुप में केवल शोभा बढ़ा रहे हैं! यह भी देखा जा रहा है कि एक बड़ा तबका प्रकृति के साथ कथित रुप से सहानुभूति तो रख रहा है, लेकिन इस दिशा किसी भी तरह की जमीनी पहल न करने की अपनी परंपरागत आदत से मजबूर भी है।

अब, जबकि हमारा पर्यावरण बुरे दौर से गुजर रहा है, तब इस बात की चर्चा प्रासंगिक हो जाती है कि आखिर क्या वजह है कि प्रकृति मानव समुदाय के साथ दोस्ताना व्यवहार नहीं कर रही है? यह भी विचार-विमर्श किया जा सकता है कि विगत कुछ वर्षों में ऐसा क्या हुआ कि पृथ्वी पर जीवन के लिए अनुकूल दशाएं दिन ब दिन मानव समुदाय के लिए कठोर से कठोरतम होती चली गईं ?

दरअसल, औद्योगिक विकास की गोद में पला-बढ़ा पिछला एक-दो दशक पर्यावरणीय दृष्टि से चिंता का विषय रहा है। इस दौरान, जीवन के भौतिकवादी लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन कर प्राकृतिक चक्र को तोड़ने की तमाम कोशिशें की गईं, जिससे आज प्राकृतिक असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हुई है।

औद्योगिक विकास की आड़ में पृथ्वी के साथ मानव का सौतेला व्यवहार जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों के सृजन के लिए उत्तरदायी रहा है। प्राकृतिक संसाधनों का सततपोषणीय उपभोग एक प्राकृतिक क्रिया है, लेकिन अब इसे शोषण का स्वरुप दे दिया गया है। जो प्रकृति पहले हमारे लिए सर्वेसर्वा थी, उसे हमने अपना दास समझ लिया है।

प्रकृति के अनियंत्रित शोषण ने पारिस्थितिक तंत्र को विच्छेद किया, नतीजतन प्राय: प्रतिदिन पृथ्वी का कुछ हिस्सा आपदा से प्रभावित रहता है। विदित हो कि बाढ़, सूखा, भू-स्खलन और भूकंप जैसी आपदाएं वसुंधरा पर बारंबार दस्तक दे रही हैं। आधुनिक जीवन का पर्याय बन चुके, औद्योगीकरण और नगरीकरण की तीव्र रफ्तार के आगे हमारा पर्यावरण बेदम हो गया है। अगर इसकी सुध न ली गई, तो हमारे अस्तित्व की समाप्ति पर पूर्णविराम लग जाएगा।

पेड़-पौधों का सफाया कर कंक्रीट से बनी आलीशान भवनें, पृथ्वी का औसत तापमान लगातार बढ़ा रही हैं।घरों में प्रयुक्त एसी और कुलर जैसे उपकरणों से निकलने वाले गैसें भी ग्लोबल वार्मिंग की एक बड़ी कारक हैं। इस तरह,वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की आवश्यकता से अधिक मात्रा होने पर वैश्विक ऊष्णता में तेजी से वृद्धि हुई है।

वैश्विक ऊष्णता के कारण, एक तरफ आपदाओं की बारंबारता है, तो दूसरी तरफ, जीव-जंतु, पेड़-पौधों तथा फसलों इत्यादि पर इसका नकारात्मक असर पड़ रहा है। लेकिन, यह भी याद रहे कि जिस आर्थिक विकास की नोंक पर आज का मानव विश्व में सिरमौर बनने का सपना हृदय में संजोये हैं, वह एक दिन, मानव सभ्यता के पतन का कारण बनेगी।

मौजूदा समय में, औद्योगिक विकास की दिशा में अग्रसर वैश्विक समाज के सामने यह बड़ी चुनौती है कि असंतुलित हो चुकी प्राकृतिक तंत्र को संतुलित कैसे किया जाए? प्रतिवर्ष स्थानीय से लेकर वैश्विक स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के नाम पर अनगिनत सभा-सम्मेलनों का आयोजन किया जाता है, लेकिन यह बस भाषणों तक ही सीमित रह जाता है।

यह जानते हुए भी कि वनों के ह्रास की प्रक्रिया पर्यावरण को सीधे तौर पर प्रभावित करती है, बावजूद इसके भारत सहित दुनिया के अधिकांश देशों के वन क्षेत्रों में तेजी से कमी आ रही है। कुछ वर्ष पहले पेड़ों की संख्या अधिक थी, तो समय पर बारिश होती थी और गर्मी भी कम लगती थी, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, पानी तरसा रहा है और गर्मी झुलसा रही है। औद्योगिक कूड़ा-कचरा, सभी प्रकार के प्रदूषण, कार्बन उत्सर्जन, ग्रीनहाउस प्रभाव और ग्लोबल वार्मिंग से पूरा पर्यावरण दूषित हो गया है।

दरअसल, बढ़ती आबादी और उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति के चक्कर में निर्दोष पेड़-पौधों की बलि चढ़ाई जा रही है। इसी का नतीजा है कि पर्यावरणीय चक्र बिल्कुल विच्छेद हो गया है। बढ़ते वैश्विक ऊष्मण के कारण आसमान से आग तो बरस ही रहे हैं, लेकिन मानसून की अनिश्चितता व अनियमितता से देश में सूखे की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

सच तो यह भी है कि औद्योगिक विकास की बदलती परिभाषा मानव सभ्यता के अंत का अध्याय लिख रही है। लेकिन,बेफ्रिकी के रथ पर सवार होकर हम अंधाधुंध विकास का गुणगान कर रहे हैं। आखिर, प्रकृति के प्रति इतनी निर्दयता क्यों? क्या केवल कंक्रीट के आलीशान भवनें और औद्योगिक संयंत्र ही मानव का पोषण करेंगी? अगर नहीं, तो फिर यह मूर्खता क्यों? अगर हां,तो फिर कैसे?

आज पृथ्वी कि जो दुर्दशा हमने की है,उस परिस्थिति में अंतर्राष्ट्रीय विद्वान हेनरी डेविड थोरियो का कथन सटीक बैठता है, जिन्होंने कहा था-भगवान का धन्यवाद कि हम उड़ नहीं सकते, अन्यथा पृथ्वी के साथ आकाश को भी बरबाद कर देते। दरअसल, मौसम और जलवायु परिवर्तन की मार से बचने के लिए आवश्यक है कि वृक्षारोपण पर अधिक से अधिक जोर दिया जाए।

नाना प्रकार के पेड़-पौधे हमारी पृथ्वी का श्रृंगार करते हैं। वृक्षारोपण कई मर्ज की दवा भी है। पर्यावरण संबंधी अधिकांश समस्याओं की जड़ वनोन्मूलन है। वैश्विक ऊष्मण, बाढ़, सूखा जैसी समस्याएं वनों के ह्रास के कारण ही उत्पन्न हुई है। मजे की बात यह है कि इसका समाधान भी वृक्षारोपण ही है। जंगल,पृथ्वी का महत्वपूर्ण हिस्सा है।

एक समय धरती का अधिकांश हिस्सा वनों से आच्छादित था, किंतु आज इसका आकार दिन-ब-दिन सिमटता जा रहा है। मानसून चक्र को बनाए रखने,मृदा अपरदन को रोकने,जैव-विविधता को संजोये रखने और दैनिक उपभोग की दर्जनाधिक उपदानों की सुलभ प्राप्ति के लिए जंगलों का होना बेहद जरूरी है। ये वातावरण से अतिरिक्त व नुकसानदेह कार्बन-डाईआक्साइड को अपने अंदर सोख कर ग्लोबल वार्मिंग से हमारी रक्षा करते हैं।

-सुधीर कुमार

 

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