वंशवादी परिपाटी खत्म कब होगी?

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आदमी आजाद है, देश भी स्वतंत्र है। राजा गए रानी गई, अब तो प्रजातंत्र है। वोट छोटा सा मगर शक्ति में अनंत है, अब तो प्रजातंत्र है। किसी ने खूबसूरती से प्रजातंत्र को परिभाषित किया है। पर वास्तव में प्रजातंत्र में प्रजा की सुनवाई हो पा रही है? क्या जो अवसर, समता की गारंटी हमारा संविधान लेता है, उसको प्रजातंत्र के खेवनहार उपलब्ध करा पाते हैं?

मत की शक्ति प्रजातंत्र में मिली, क्या उसका सही प्रयोग हो रहा है? या राजनीति वाले साधक उसको भी ताक पर रख दिए हैं। सवाल तो बहुतेरे हैं, लेकिन वास्तविकता में आदमी आजाद है, देश भी स्वतंत्र है, कि पंक्ति आज के दौर में फसाना ही लगती है। जब राजनीति नेताओं के लिए अर्थनीति का साधन बन जाए। सत्ता परिवारवाद की गोदी में सिमट जाए।

जनता का जनतंत्र में कोई प्रत्यक्ष योगदान न रह जाए, जनता को कठपुतलियों की तरह सियासतदान नचाने लगें, तो फिर लगता यहीं है, कि न तो राजा गए, न रानी गई, बल्कि देश को लूटने की एक समानांतर व्यवस्था ने डेरा जमा लिया है। देश की व्यवस्था संविधान के अनुरूप चलता है, लेकिन वास्तविकता की जड़ को खोदकर देखा जाए, तो सच्चाई की परत कुछ और? ही दिखती है।

जो प्रजातंत्र के खोखला होने की मोहर लगाने का काम करती है। संविधान में जातिवादी व्यवस्था को खत्म करने की बात की गई, लेकिन क्या आज तक देश की व्यवस्था से जातिवादी की जकड़न टूटी, क्या अवसर की समता प्राप्त हुई, सबको समान न्याय उपलब्ध हो सका, गरीब मिटी, परिवारवाद की राजनीति छिन्न-भिन्न हुई, उत्तर फिर न में ही मिलता है। फिर किस लोकतंत्र और जनवादी व्यवस्था की बात देश में होती है?

आज आजादी के बाद देश की स्थिति यह है, कि देश से राजवंश की व्यवस्था भले चली गईं, लेकिन वह सामंती व्यवस्था अभी भी राजनीति में हावी है, अगर देश का वास्तविक विकास और अंतिम छोर तक विकास की यात्रा को पहुँचाना है। वंशवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकना होगा। तभी देश के अधिक से अधिक हाथ तक सत्ता की पहुँच हो पाएगी,

और तभी जाकर स्वस्थ लोकतंत्र अच्छे से पुष्पित और पल्लवित होकर निखर कर सामने आ पाएगा। इसके साथ दबे- कुचलों की आवाजें भी सुनाई पड़ेगी। हमारा सुंदर सा लोकतंत्र कुछ घरानों की राजनीति तक सीमित होता जा रहा है, यह देश के सियासतदार समय-समय पर कबूलते भी है, लेकिन दुर्भाग्य यह है, कि इसको दूर करने का सार्थक प्रयास कहीं से नहीं दिखता।

आज वंशवादी साया जम्मू-कश्मीर में अब्दुल्ला वंश से चलकर मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा सईद से होते हुए , दक्षिण भारत में करुणानिधि, मारन और देवेगौड़ा के वंश तक पहुँचती है। यह वंशवादी राजनीति की रासलीला रूपी पटकथा यही समाप्त नही होती। इसकी ताकत का पता उड़ीसा से भी चलता है, जहां पिछले पंद्रह वर्षों से पटनायक वंश की हुकूमत है। इस ज्वर से पीडित उत्तर प्रदेश, बिहार और अन्य हिंदी भाषी राज्य भी हैं, जहाँ पर वंशवादी राजनीति ने स्वस्थ लोकतंत्र का गला घोंटने का काम किया है।

आज देश की आवाम मूलभूत रोटी, पानी और बिजली के लिए जूझती है, तो उसका कारण राजनीति की नई वंशवादी व्यवस्था ही है। एक सर्वे के मुताबिक देश मे वर्तमान संसद में वंशवादी सांसदों की संख्या में दो प्रतिशत और सरकार में ऐसे मंत्रियों की संख्या में 12 प्रतिशत की कमी आई है। जो कुछ शुभ संकेत माना जा सकता है।

पैट्रिक फ्रेंच ने 2012 में अपनी एक किताब में देश के बारे में लिखा था, यदि वंशवाद की यही राजनीति चलती रही, तो भारत की दशा उन दिनों जैसी हो जाएगी जब यहां राजा महाराजाओं का शासन हुआ करता था। आंकड़े के खेल में इस गतिशील संसद में वंशवाद की राजनीति में कुछ फीसद का सुधार हुआ है। पिछली संसद में 29 फीसद राजनीतिक घरानों से थे, तो इस बार यह आंकड़ा 21 पर रुका है।

2011 में किए गए एक सर्वे के मुताबिक 18 से 30 वर्ष की उम्र वाले युवा मतदाता सामान्यतया वंशवादी राजनीति की मुखालफत करते हैं, परन्तु जब राजनीतिक घराने से युवा उम्मीदवार आता है तो वे उसे ही मत देने को वरीयता देते हैं। इस प्रथा को भी बंद करना होगा, अगर वर्तमान रजवाड़े की शक़्ल से देश को आजादी चाहिए, तो। अब जब देश की राजनीति में वंशवादी व्यवस्था के जनक यह मान रहे हैं, कि देश वंशवाद से ग्रसित है, तो वह रवायत अब जरूर दूर होनी चाहिए।

-महेश तिवारी

 

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