पींग रही न पींगणिए, न रहे पिलखण के पेड़

village traditions

अब बीते जमाने की बात हुई सावन की वो झूलों वाली रौनक, नहीं सुनाई देते सावन के वो गीत | village traditions

घरों व बाग-बगाचोंं में नहीं दिखाई देती वो गाती-इठलाती महिलाओं की टोलियां

कुरुक्षेत्र सच कहूँ/देवीलाल बारना। दे दे री मेरी माँ पीढ़ी अर रैस, झूलण जांगी हरियल बाग मैं…, इस प्रकार के गीत अब  (village traditions) सावण में कहां सुनने को मिलते है, जोकि पुराने समय में सावन में आम सुनाई देते थे। पूर्णिमा के बाद जहां सावन माह शुरू हो गया है, वहीं मौसम की रोजाना बदलती करवट भी सावन को झूमने पर मजबूर कर रही है। लेकिन सावन माह में जो रौणक पहले हुआ करती थी, आज ये सब बातें बीते जमाने की लगने लगी हैं। बता दें कि सावन का माह शुरू होते ही जहां मौसम सुहावना हो जाता है वहीं कोथली देने का सीजन भी शुरू हो जाता है। इन दिनों का महिलाओं को इंतजार रहता है कि कब उसका भाई कोथली लेकर आएगा।

वैसे भी बरसात के मौसम में मीठा खाने का अपना महत्व है इसलिए सावन में मनाए जाने वाले तीज त्योहार को को मीठा त्यौहार भी कहा जाता है। तीज का त्यौहार श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। तीज के दिनों मे मिठाई के दुकानदारों की चांदी हो जाती है क्योंकि तीज के दिन भाई अपनी बहन के घर कोथली जिसमें घेवर, फिरनी, बतासे, बिस्कुट, मिट्ठी मट्ठी व अन्य मिठाई लेकर जाता है लेकिन आज की भागदौड़ भरी जिंदगी ने तीज का रस शायद कुछ कम कर दिया है।

सावन के महीने में घरों व बाग-बगाचोंं में झूला-झूलाती दिखाई देने वाली महिलाओं की इठलाती-गाती अलमस्त टोलियां आजकल नजर ही नहीं आती। हरियाली रहित जंगलों और भाग-दौड भरी मौजूदा जीवन में न तो पींग, न पींग डालने वाले और न ही मिट्टी की खुशबू से जुड़े सावन के मधुर लोकगीत भी कहीं नजर नही आते। आधुनिकता ने सावन के झूले को इस त्यौहार से पीछे छोड़ दिया है। हरियाणा में पहले सावन का पूरा महीना बड़े-बड़े झूलों व हरियाणवी लोकगीतों के नाम रहता था। लेकिन आज आज कहीं लोकगीत सुनने को भी नहीं मिलते।

इब कित वा पहलां
आली तीज रैहगी

पहले सावन माह मौज मस्ती के लिए प्रसिद्ध होता था। महिलाओं के गीतों की आवाज गांव के हर कोने से सुनी जा सकती थी। लेकिन आज यह माह भी अन्य महिनों की तरह ही काम धंधों में व्यस्त हो गया है। सावन माह को लेकर जब एक बगड़ में बैठी दो बुजुर्ग महिलाओं के मन को कुरेदा गया तो वे दोनों अपनी पुरानी यादों मे इस कद्र खो गई कि अपने समय की सावन की सारी बातें सुना दी और झूम कर सामण आया ए माँ मेरी झूमता री, ऐ री आई रंगीली तीज झूलण जांगी बाग मैं इत्यादि गीत गाने लगी और बोली कि तीज तो म्हारे टैम मैं मनाई जावै थी इब कित वा पहलां आली तीज रैहगी। पहलां जिब हम पींग्या करते तो आस-पास के लोग देखण लग ज्या करते अर सारा सामण गीत गाया करती पर इब तो सामण के आए का अर गऐ पता ही ना लागता।

पींग रही न पींगणिए, न रहे पिलखण के पेड़ | village traditions

पींग की अगर बात की जाए तो आज पींग पींगने वाले व पींगाने वाले ही नही रहे बाकि बची कसर वृक्षों ने निकाल दी क्योंकि जिन पिलखण व बरगद के वृक्षों पर पींग डाली जाती थी ऐसे वृक्ष ही नही रहे तो पींग डालना तो लोहे के चने चबाने जैसा प्रतीत होने लगा है। पिछले लंबे समय से वृक्षों पर चल रही कुल्हाडी से आज यह नौबत आन खड़ी हुई है कि बड़े वृक्षों को देखना भी अंचभा सा लगता है।

बहन-भाई के अटूट प्यार का प्रतीक है कोथली | village traditions

कोथली पहले कपड़े की सिली होती थी। आजकल थैले में सामान ले जाते हैं। कोथली में सुहाली, गुलगुले, घेवर, पताशे आदि ले जाने की परम्परा रही है। पहले जब परिवहन के साधन नहीं होते थे तो कोथली ले जाते हुए एक-दूसरे को जब रास्ते में लोग मिलते थे तो रामा-किशनी किया करते थे। इसके साथ ही कोथली में आई सुहाली अनेकों दिन चलती थी। कई शरारती बच्चे तो सुहालियों की जेब भरके सारा दिन खेल में मस्त रहते थे। सुहालियों पर छटांक, आधसर आदि बाटों के निशान आटे में बनाकर उन्हें पकाया जाता था। सुहाली वास्तव में सु-आहार का प्रतीक है। अनेक स्थानों पर इसे सुहाल भी कहा जाता है। आज सुहाली एवं गुलगुलों का स्थान मिठाई के डिब्बों ने ले लिया है। बहन और भाई के अटूट प्यार का प्रतीक कोथली आज भी आधुनिक रूप में देने की परम्परा लोकजीवन में विद्यमान है।

-डॉ. महासिंह पुनिया
क्यूरेटर, धरोहर हरियाणा

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