Communalism: रोम-रोम में राम और खुदा है, फिर क्यूँ ये समाज जल रहा है !

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Communalism: भारत एक विविधता पूर्ण देश है, यहाँ प्रत्येक कोस पर भाषा और रीति रिवाज बदल जाते हैं। रीति रिवाज संपन्न इस देश की खूबसूरती है कि विभिन्न जाति, धर्म के संस्कार और चलन यहाँ एक सुन्दर गुलदस्ते का रूप लगते हैं। भारत (India) की भौतिक संपन्नता के कारण कालान्तर में कई विदेशी आक्रान्ताओं की कुदृष्टि तो इस देश पर लगी ही रही साथ ही यहां की सांस्कृतिक विरासत को आत्मसात करने के लिए भी चीनी यात्रियों से लेकर अरब, ईरान से सूफी संत, इस देश की ओर आकर्षित होते रहे। यदि कोई शरणार्थी बन कर भी आया तो उसे भी सहजता से इस देश ने स्वीकार कर लिया।

यही कारण था कि विभिन्न तरह की सभ्यता का संगम भारत देश में विद्यमान है। जिस भी आगंतुक सम्प्रदाय या जाति, धर्म ने यहाँ की संकृति को आत्मसात कर लिया वह ना केवल पारसी समुदाय की भांति तरक्की के रास्ते पर चलने लगा अपितु निज की सांस्कृतिक विरासत को भी पल्लवित करता रहा। किंतु जहाँ भी किसी समुदाय ने विशेषाधिकार के स्तर के बावजूद अपने स्वार्थ की खातिर स्वयं की जाति धर्म को सर्वोपरि माना तो यहीं से वैमनस्य का बीज उत्पन्न होने लगा, जिसे समय-समय पर अवसाद की खाद से सींचा गया और फिर घृणा के इसी वृक्ष से साम्प्रदायिकता के फल का जन्म लेने लगा।

नफरत के इस पेड़ के दिए इस साम्प्रदायिकता रूपी फल का नशा कुछ इस कदर होता है कि अन्य जाति, धर्म के लोग भी इसका स्वाद बदले की आग में चखने लगे जिसका परिणाम ये हुआ कि ना केवल इस देश का विभाजन हुआ बल्कि साम्प्रदायिकता की आग में जलने के लिए सदियों के लिए एक मंच तैयार हो गया। इसी साम्प्रदायिकता के फलस्वरूप ही समय-समय पर देश के विभिन्न राज्यों से अलगाववाद की चिंगारी सुलगती रहती है। अपने को सर्वश्रेष्ठ और दूसरे को हेय दृष्टि से देखने का ही परिणाम है कि भारत संघ में आज साम्प्रदायिकता की जरा सी चिंगारी एक दावानल का रूप धारण कर लेती है। जिसकी आग में पूरा समाज जलने लगता है। India

साम्प्रदायिक हिंसा एक प्रकार की हिंसा है, जो किसी धर्म, पंथ या संप्रदाय विशेष के लोगों के बीच होती है। इसके अंतर्गत सभी प्रकार की हिंसा, झड़पें व दंगे शामिल किए जाते हैं, जो धार्मिक, पंथ या सामाजिक संप्रदाय के बीच होते हैं। जो लोग इस नफरत की आग का शिकार हो जाते हैं। अक्सर उनका साम्प्रदायिकता से कुछ लेना-देना नहीं होता। जिनकी सम्पत्ति को लूटा जाता है या आगजनी की जाती है वे अक्सर बेकसूर होते हैं। सार्वजनिक सम्पत्ति को धार्मिक दंगों में नष्ट कर देना तो जैसे धार्मिक उन्माद में आम हो चला है।

किसी की धार्मिक भावनाओं को उकसाने और फिर प्रतिक्रिया स्वरूप कानून अपने हाथ में लेकर उन्माद फैलाना यह सिद्ध करता है कि देश की माटी से उपजे ये उन्मादी, अपने देश के ना होकर किसी पराये मुल्क में रह रहे हों। इस साम्प्रदायिकता के विष से उपजे दंगाई इस बात से भी गुरेज नहीं करते कि जिस सम्पत्ति की हानि उनके द्वारा की जा रही है, वह उन्हीं के देश के करदाताओं की अर्जित कमाई से बनी हुई है और उन्हीं लोगों के कल्याण के लिए निवेश की गई है। इस नाशवान संसार में जहां रोम-रोम में राम है और कण-कण में खुदा व्याप्त है। उसी की खुदाई को साम्प्रदायिकता की आग में खाक किया जा रहा है। समाज इस मुहाने पर आ चुका है कि इंसान, इंसानियत को विस्मृत कर बेशर्मी की सारी हदें पार कर रहा है। Bharat

एक रिपोर्ट के अनुसार चार वर्ष के बीच देश में सांप्रदायिक या धार्मिक दंगों के 2,900 से अधिक मामले दर्ज किए गए। हालांकि समय-समय पर सरकार द्वारा हिंसा भड़काने की क्षमता वाली फर्जी खबरों और अफवाहों के प्रसार पर नजर रखने, उनका प्रभावी ढंग से मुकाबला करने के लिए सभी आवश्यक उपाय करने और ऐसा करने वाले व्यक्तियों से सख्ती से निपटने के लिए कहा गया है। हाल ही में जारी राष्ट्रीय अपराध रिपोर्ट ब्यूरो के 2021 के अपराध आंकड़ों के अनुसार, देशभर में सांप्रदायिक हिंसा के 378 मामले दर्ज किए गए हैं। श्री राम मंदिर आंदोलन की प्रतिक्रिया में सेवकों को जिंदा जला देने के फलस्वरूप गुजरात दंगे हों, फिर उस प्रतिक्रिया में मुंबई बम धमाके, इसी साम्प्रदायिकता के जहर की उपजी श्रृंखला है, जो देश में आपसी सौहार्द को समाप्त कर रही है। हालिया घटना दिल्ली में देखने को मिली जहाँ बेकसूर राहगीरों पर पत्थरों की बौछार की गई और यात्रियों से भरे सार्वजनिक वाहनों पर हमला किया गया।

हरियाणा के मेवात में दंगाइयों ने हिन्दू समुदाय पर हमला करने की जो रणनीति अपनाई, जिसमें किशोर और युवा पीढ़ी का इस्तेमाल किया गया, वो यह सोचने को मजबूर करती है कि हमारे समाज का किशोर और युवा वर्ग, जिसके हाथों देश का उज्ज्वल भविष्य लिखा जाना था, वह किस कदर एक समुदाय के प्रति नफरत की आग में अपनी तरुणाई के साथ अपने देश को खाक करने में लगा हुआ है। अब इसी घटना के प्रतिक्रिया स्वरूप यदि दंगों की आग फैलती है तो ये भारत जैसे संवेदनशील समाज के लिए घातक है, जो पहले ही विदेशी शक्तियों की आँख की किरकिरी बना हुआ है। जब तक एक समुदाय दूसरे समुदाय को अपमानित करता रहेगा, तब तक के सामाजिक सौहार्द कायम नहीं हो सकता। शिवभक्तों पर हमला या थूक फेंकना या फिर किसी धार्मिक स्थल के समक्ष डीजे संगीत के साथ शस्त्र प्रदर्शन ही कुछ इस तरह की हरकतें हैं, जो साम्प्रदायिकता के मुहाने पर खड़े संवेदनशील समाज में ज्वाला का काम करती हैं।

किसी धार्मिक स्थल पर हथियारों का जखीरा इकठ्ठा हो जाने के पीछे भी विदेशी शक्तियों द्वारा पोषित स्लीपर सेल की भूमिका ही कही जा सकती है। ये नकारात्मक शक्तियां स्लीपर सेल के रूप में सारे देश में फैली हुई हैं, जो देश की जड़ों को खोखला कर रही हैं। आम आदमी के घर में आधुनिक अस्त्र-शस्त्र की मौजूदगी इस स्लीपर सेल का समाज में विद्यमान होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है, जो कि सोशल मीडिया पर फैली फेक न्यूज के बूते पर पूरे देश को जला पाने का सामर्थ्य रखती है।

आज यदि समाज पर दृष्टि डाली जाए तो यहाँ ऐसी वृतियाँ पनप रही हैं, जिनमें नैतिक शिक्षा व सदाचार की अपेक्षा अनैतिकता व भ्रष्ट आचरण को महत्त्व दिया जा रहा है। यही कारण है कि सोशल मीडिया समाज में धार्मिक कट्टरवाद व राष्ट्रविरोध का एक बेलगाम लश्कर तैयार करने में लगा हुआ है। यह जानबूझकर किया जाने वाला कृत्य देश की आन्तरिक शक्तियों की तरफ से हो या फिर विदेशी ताकतों के माध्यम से हो रहा हो पर इसको हवा देने का कार्य सत्ता लोलुपता के गणित में उलझी कुछ शक्तियों के हाथ से इनकार नहीं किया जा सकता।

समाज में इस तरह का वातावरण तैयार किया जा रहा है, जिसमें देशद्रोह की पोस्ट का इस्तेमाल समाज में आग लगाने के लिए किया जा रहा है और अफसोस यह कि इन पोस्ट के समर्थन करने वालों का एक बुद्धिजीवी वर्ग भी अचानक प्रकट हो जाता है। यह समाज में नैतिक दिवालिएपन का ही परिणाम है कि इन मीडिया साइट को धर्मान्तरण संवेदनहीन मुद्दों के लिए हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाने के मामले भी उजागर हो रहे हैं। अधिकतर दंगों में स्लीपर सेल द्वारा फैलाई जा रही नफरतों के पैगाम ही हैं, जो सोशल मीडिया के माध्यम से घर-घर पहुंचाए जा रहे हैं। छोटे-छोटे कस्बे व गांव भी इंटरनेट की पहुँच से समाज में इन जहरीली पोस्ट के माध्यम से वैमनस्यता का केंद्र बनते जा रहे है।

आज यदि हमें अपने सामाजिक ताने-बाने को बचाना है तो हमें अपने परिवार के युवा व किशोर वर्ग को ऐसा मार्गदर्शन देना होगा ताकि उनका नैतिक व चारित्रिक उत्थान हो सके। शासन के द्वारा कानून बनाने की अपेक्षा पारिवारिक माहौल इस दिशा में ज्यादा सार्थक परिणाम दे सकता है। Communalism

मुनीष भाटिया, वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार

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