साहिर लुधियानवी: गीतों का जादूगर

Sahir Ludhianvi

साहिर के मायने जादूगर होता है। शायर-नग्मानिगार साहिर लुधियानवी वाकई एक जादूगर थे, जिनकी गजलें-नज्में और नग्में उनके लाखों चाहने वालों के दिलों-दिमाग पर एक जादू जगाते थे। वे जब मुशायरे में अपना कलाम पढ़ने के लिए खड़े होते, तो उनकी शायरी पर लोग झूम उठते। यही जादुई असर उनके फिल्मी नग्में सुनने पर होता है। साहिर लुधियानवी को इस दुनिया से रुखसत हुए एक लंबा अरसा बीत गया, मगर ये एक जादू ही है, जो आज भी उनकी शायरी सिर चढ़कर बोलती है। उर्दू अदब में उनका कोई सानी नहीं। 8 मार्च, 1921 को लुधियाना के नजदीक सोखेवाल गांव में जन्मे साहिर लुधियानवी का वास्तविक नाम अब्दुल हेई था। शायरी से लगाव और शायरों के नाम में तखल्लुस के रिवाज ने उन्हें साहिर लुधियानवी बना दिया। साहिर के बचपन पर यदि गौर करें, तो यह बेहद तनावपूर्ण माहौल में गुजरा।

उनके पिता फाजिल मोहम्मद और उनकी मां सरदार बेगम के वैवाहिक संबंध अच्छे न होने की वजह से घर में हमेशा तनाव बना रहता था। जाहिर है कि इसका असर उनके दिलो दिमाग पर भी पड़ा। बगावत उनके स्वभाव का हिस्सा बन गई। रिश्तों पर उनका एतबार न रहा। जिंदगी में मिली इन तल्खियों को उन्होंने जब-तब अपनी शायरी में भी ढाला। मसलनदुनिया ने तज्रबातों हवादिस की शक्ल में/जो कुछ मुझे दिया है, वो लौटा रहा हंू मैं।

एक वक्त ऐसा भी आया, जब मां ने ही साहिर की परवरिश की। उन्हें पढ़ाया-लिखाया और अच्छी तर्बीयत दी। साहिर को लिखने-पढ़ने का शौक बचपन से ही था। पढ़ाई के साथ-साथ उनकी दिलचस्पी शायरी में भी थी। लुधियाना में कॉलेज की पढ़ाई के दरमियान ही वे गजलें-नज्में लिखने लगे थे, जिसे उनके सहपाठी पसंद भी करते थे। विद्यार्थी जीवन में ही साहिर लुधियानवी की गजलों, नज्मों का पहला काव्य संग्रह तल्खियां प्रकाशित हुआ।

इस संग्रह को उनके चाहने वालों ने हाथों हाथ लिया। वे रातों-रात देश भर में मशहूर हो गए। उर्दू के साथ-साथ हिंदी में इसके कई संस्करण प्रकाशित हुए और आज भी ये किताब हाथों-हाथ बिकती है। इस किताब की सारी गजलें मोहब्बत और बगावत में डूबी हुई हैं। इन गजलों में प्यार-मोहब्बत के नरम-नरम अहसास हैं, तो महबूब की बेवफाई, जुदाई की तल्खियां भी।अपनी मायूस उमंगों का फसाना न सुना/मेरी नाकाम मोहब्बत की कहानी मत छेड़। (मुझे सोचने दे !), किसी-किसी गजल में उनके बगावती तेवर देखते ही बनते हैं। अपनी मकबूल गजल ताजमहल में वे लिखते हैं, ये चमनजार, ये जमना का किनारा, ये महल/ये मुनक्कश दरो-दीवार, ये महराब, ये ताक/इक शहनशाह ने दौलत का सहारा लेकर/हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मजाक। साहिर लुधियानवी अपनी तालीम पूरी करने के बाद, नौकरी की तलाश में लाहौर आ गए। ये दौर उनके संघर्ष का था। उन्हें रोजी-रोटी की तलाश थी।

बावजूद इसके साहिर ने लिखना-पढ़ना नहीं छोड़ा। तमाम तकलीफों के बाद भी वे लगातार लिखते रहे। एक वक्त ऐसा भी आया, जब उनकी रचनाएं उस दौर के उर्दू के मशहूर रिसालों अदबे लतीफ, शाहकार और सबेरा में अहमियत के साथ शाया होने लगीं। लाहौर में कयाम के दौरान ही वे प्रगतिशील लेखक संघ के संपर्क में आए और इसके सरगर्म मेंम्बर बन गए। संगठन से जुड़ने के बाद उनकी रचनाओं में और भी ज्यादा निखार आया।

मार्क्सवादी विचारधारा ने उनकी रचना को अवाम के दु:ख-दर्द से जोड़ा। अवाम के संघर्ष को उन्होंने अपनी आवाज दी। साहिर लुधियानवी का शुरूआती दौर, देश की आजादी के संघर्षों का दौर था। देश के सभी लेखक, कलाकार और संस्कृतिकर्मी अपनी रचनाओं एवं कला के जरिए आजादी का अलख जगाए हुए थे। साहिर भी अपनी शायरी से यही काम कर रहे थे।

नौजवानों में साहिर की मकबूलियत इस कदर थी कि कोई भी मुशायरा उनकी मौजूदगी के बिना अधूरा समझा जाता था। जिस अदबे लतीफ में छप-छपकर साहिर ने शायर का मर्तबा पाया, एक दौर ऐसा भी आया जब उन्होंने इस पत्रिका का संपादन किया और उनके सम्पादन में पत्रिका ने उर्दू अदब में नए मुकाम कायम किए।

आओ कि कोई ख्वाब बुनें साहिर लुधियानवी की वह किताब है, जिसने उन्हें शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया। इस किताब से उन्हें अवाम की मुहब्बत भी मिली, तो आलोचकों से सराहना। इस काव्य संग्रह पर उन्हें कई साहित्यिक पुरस्कार मिले। जिनमें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, उर्दू अकादमी पुरस्कार और महाराष्ट्र राज्य पुरस्कार भी शामिल है। आओ कि कोई ख्वाब बुनें किताब में उनकी ज्यादातर नज्में संग्रहित हैं और ये सभी नज्में एक से बढ़कर एक हैं। एक लिहाज से देखें, तो आओ कि कोई ख्वाब बुनें साहिर की प्रतिनिधि किताब है।

शीर्षक नज्म आओ कि कोई ख्वाब बुनें में साहिर के जज्बात क्या खूब नुमायां हुए हैं,आओ कि कोई ख्वाब बुनें, कल के वास्ते/वरना यह रात, आज के संगीन दौर की/डस लेगी जानो-दिल को कुछ ऐसे, कि जानो-दिल/ता उम्र फिर न कोई हंसी ख्वाब बुन सके/गो हमसे भागती रही यह तेज-गाम (तीव्र गति) उम्र/ख्वाबों के आसरे पे कटी है तमाम उम्र/जुल्फों के ख्वाब, होंठों के ख्वाब और बदन के ख्वाब/मेराजे-फन (कला की निपुणता) के ख्वाब, कमाले-सुखन (काव्य की परिपूर्णता) के ख्वाब/तहजीबे-जिन्दगी (जीवन की सभ्यता) के, फरोगे-वतन (देश की उन्नति) के ख्वाब/जिन्दा (कारागार) के ख्वाब, कूचए-दारो-रसन (फांसी) के ख्वाब। किताब आओ कि कोई ख्वाब बुनें में ही साहिर लुधियानवी की लंबी नज्म परछाईयां शामिल है। परछाईयां के अलावा खून फिर खून है !, मेरे एहद के हसीनों, जवाहर लाल नेहरू, ऐ शरीफ इन्सानों, जश्ने गालिब गांधी हो या गालिब हो, लेनिन और जुल्म के खिलाफ जैसी शानदार नज्में इसी किताब में शामिल हैं। यह किताब वाकई साहिर का शाहकार है।

तल्खियां, परछाईयां, आओ कि कोई ख्वाब बुनें आदि किताबों में जहां साहिर लुधियानवी की गजलें और नज्में संकलित हैं, तो गाता जाए बंजारा किताब में उनके सारे फिल्मी गीत मौजूद हैं। इन गीतों में भी गजब की शायरी है। उनके कई गीत आज भी लोगों की जबान पर चढ़े हुए हैं। साहिर को अवाम का खूब प्यार मिला और उन्होंने भी इस प्यार को गीतों के तौर पर अवाम को सूद समेत लौटाया।

उर्दू अदब और फिल्मी दुनिया में साहिर लुधियानवी के बेमिसाल योगदान के लिए उन्हें कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा गया। जिसमें भारत सरकार का पद्मश्री अवार्ड भी है। 25 अक्टूबर, 1980 को इस बेमिसाल शायर, गीतकार ने अपनी जिंदगी की आखिरी सांस ली। आज भले ही साहिर लुधियानवी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी गजलें, नज्में और नग्में फिजा में गूंज-गूंजकर इंसानियत और भाईचारे का पाठ पढ़ा रहे हैं।

जाहिद खान

 

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