संधि पर संदेह की वजह

Treaty on Nuclear Weapons

परमाणु हथियारों के वैश्विक विलोपन के लिए अंतरराष्ट्रीय सत्यापन को जरूरी बनाया जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र की संधि में सत्यापन के पहलू को नहीं जोडा गया है। फिर सबसे बड़ी बात यह है कि मौजूदा समय में जिस तरह से पाकिस्तान और चीन भारत के विरूद्ध मोर्चा बंदी कर रहे हैं उसे देखते हुए वह अपने विकल्पों को खुला रखना चाहता है। इसलिए भारत इस बात पर जोर दे रहा है कि परमाणु हथियारों पर अकुंश और पूर्ण निरस्त्रीकरण के लिए क्षेत्रीय नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रयास होने चाहिए।

परमाणु हथियारों के घातक प्रभाव से दुनिया को बचाने तथा उनके परीक्षण, उत्पादन, भंडारण, उपयोग व स्थानांतरण पर रोक लगाने के लिए दुनिया की पहली संधि संयुक्त राष्ट्र से अनुमोदित होने के बाद लागू हो गयी है। परमाणु न्यूक्लियर डील को लेकर ईरान तथा अमेरिका के बीच चल रही तनातनी के माहौल में वैश्विक संधि का अस्तित्व में आना काफी अहम माना जा रहा है। हालांकि परमाणु हथियारों से लैस अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन समेत दुनिया के कई देशों ने इसका विरोध किया है। विश्व स्तर पर निरस्त्रीकरण के उपायों की वकालत करने वाला भारत भी संधि का विरोध कर रहा है। खास बात यह है कि परमाणु हमले की विभीषिका झेल चुका दुनिया का एकमात्र देश जापान भी संधि में शामिल होने से इंकार कर चुका है।

नाटों में शामिल 30 देशों ने भी संधि से दूर रहने की बात कही है। संधि का विरोध कर रहे इन देशों को कहना है कि संधि अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा माहौल की हकीकत से कोसों दूर है। दुनिया को परमाणु हथियारों के खतरे से बचाने के लिए विश्व के अलग-अलग भागों में स्थित 100 से अधिक देशों के गैर-सरकारी संगठनों के समूह इंटरनेशनल कंपैनिग टू अबोलिस न्यूक्लियर वैपंस (आईसीएएन) ने लंबे समय से परमाणु हथियारों का उन्मूलन करने के अंतरराष्ट्रीय अभियान (ट्रीटी आॅन द प्रोहिबिशन आॅफ न्यूक्लियर वेपन्स (टीपीएनडब्ल्यू) चला रखा है। आईसीएएन ने जुलाई 2017 में यूएन महासभा में वैश्विक स्तर पर परमाणु हथियारों के प्रयोग को प्रतिबंध किए जाने से संबंधित प्रस्ताव पेश किया था।

193 सदस्यों वाली यूएन महासभा के 122 सदस्यों ने प्रस्ताव का समर्थन किया था। संधि को लागू किए जाने के लिए 50 सदस्य देशों के अनुमोदन की आवश्यकता थी। 24 अक्टुबर 2020 को होंडुरास ( 50 वा देश ) के अनुमोदन के बाद यह संधि 22 जनवरी से प्रभावी हो गयी है। आईसीएएन के इस प्रयास के लिए उसे साल 2017 में नोबेल पुरूस्कार से सम्मानित किया गया था। हालांकि, संयुक्त राष्ट्र से अनुमोदित इस संधि को घातक हथियारों से निजात दिलाने कि दिशा में एक ऐतिहासिक कदम बताया जा रहा है। लेकिन परमाणु संपन्न देशों के विरोध के चलते इसकी सफलता पर सवाल उठ रहे हैं।

इन देशों का मानना है कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा अनुमोदित संधि के जरिए परमाणु निरस्त्रीकरण पर एक व्यापक विश्व व्यवस्था कायम नहीं की जा सकती है, क्यों कि संधि में ईरान व उत्तर कोरिया जैसे देशों के परमाणु कार्यक्रम को लेकर कोई समाधान पेश नहीं किया गया है। दूसरा इन राष्ट्रों का तर्क है कि जब परमाणु हथियारों पर नियंत्रण के लिए परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) 1970 से प्रभावी है, तो नई संधि की आवश्यकता क्यों महसूस हुई। दूसरी ओर भारत का कहना है कि जिनेवा स्थित निरस्त्रीकरण पर सम्मेलन (सीडी) निरस्त्रीकरण पर चर्चा के लिए एक मात्र बहुपक्षीय मंच है, तथा परमाणु हथियारों पर समग्र सम्मेलन (सीएनडब्ल्यूसी) में प्रतिबंध और विलोपन के अलावा सत्यापन भी शामिल है।

निसंदेह, परमाणु हथियारों के बढ़ते हुए जखीरे के बीच परमाणु सम्पन्न राष्ट्रों का यह रवैया चिंताजनक है। दुनिया के कुछ हिस्सों में बड़ी शक्तियों के हस्तक्षेप के चलते जिस तरह से हर वक्त यद्ध की संभावना बनी रहती है, उसमे यह आशंका भी भयभीत करती है कि कब कोई संघर्षरत राष्ट्र परमाणु हथियारों का उपयोग कर बैठे। परमाणु हथियारों का रख-रखाव व उनकी सुरक्षा की चिंता भी इस डर को बढ़ाने वाली है। करीब 2000 से अधिक परमाणु हथियार हाई अलर्ट पर बताए जा रहे हैं। कहने को भले ही देशों ने परमाणु हथियारों का इस्तेमाल न करने का फैसला किया हो लेकिन उनका इस्तेमाल आतंकवादी समूहों या साइबर अपराधियों द्वारा नहीं किया जा सकता है, इसकी गांरटी किसी राष्ट्र ने नहीं दी हैं।

इससे पहले पिछले सप्ताह अमेरिकी मीडिया में इस तरह की खबरें आई थी कि अमेरिका संधि के विरोध में लॉबिग कर रहा हैं। कहा जा रहा है कि अमेरिका ने उन देशों को पत्र भेजकर अपना समर्थन वापस लेने का आग्रह किया है, जिन्होने टीपीएनडब्ल्यू की पुष्टि की थी। सच तो यह है कि परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र यह कभी नहीं चाहते हंै कि शक्ति के मामले में दूसरे देश उनके बराबर खड़े हो सकें। वे परमाणु शक्ति के नाम पर छोटे राष्ट्रों को हमेशा के लिए दबाकर रखना चाहते हैं। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 5 फरवरी 2021 को समाप्त होने वाली स्टार्ट-2 को आगे बढाने का कोई ईरादा नहीं दिखाया। अब बाइडेन प्रशासन ने अभी तक इस पर अपना कोई रूख स्पष्ट नहीं किया है।

छोटे राज्यों पर परमाणु हथियार वाले देशों द्वारा भारी दबाव के बावजूद संधि का पारित होना बड़ी परमाणु शक्तियों के लिए एक नैतिक हार है। हिरोशीमा और नागासाकी के परिणामों को देखते हुए इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि परमाणु हथियारों के विनाशकारी प्रभावों का कोई ईलाज नहीं है। कोविड-19 के दौरान बडे़ देशों में चिकित्सा व्यवस्था को लेकर जिस तरह से मारामारी हुई वो दृश्य अभी भूले नहीं हैं। कुलमिलाकर कहा जाए तो परमाणु हथियारों का निवारण ही इसके खतरे का एक मात्र समाधान है। इसलिए जरूरी है कि सभी देशों द्वारा टीएनपीडब्ल्यू का सम्मान किया जाना चाहिए। लेकिन अब जिस तरह से भारत सहित दूसरे परमाणु शक्ति संपन्न देश संधि का विरोध कर रहे हैं, उसे देखते हुए लगता है कि दुनिया को परमाणु हथियारों से मुक्त करने का सपना फिलहाल पूरा होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है।

                                                                                                         -डॉ. एन.के . सोमानी

 

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