मनरेगा मजदूरों को भुगतान तत्काल हो

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जाहिद खान

सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में अपने एक आदेश में स्पष्ट तौर पर कहा है कि ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम’ यानी मनरेगा के तहत मजदूरी के भुगतान में कोई विलंब स्वीकृत नहीं है और इसमें नौकरशाही की ओर से होने वाली देरी या लाल फीताशाही का बहाना नहीं बनाया जा सकता।

अदालत ने आदेश में उल्लेख किया कि केंद्र सरकार ने खुद मजदूरी के भुगतान में विलंब की बात स्वीकार की है। लिहाजा मनरेगा के तहत काम करने वालों को भुगतान तत्काल किया जाना चाहिए। ऐसा न किए जाने पर उन्हें एक निर्धारित मुआवजा देना होगा। केंद्र सरकार अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकती।

एक व्यक्ति जो ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में है कि मनरेगा में रोजगार की तलाश कर रहा है, उसे सरकार, संवैधानिक रूप से निर्धारित समय के भीतर मजदूरी का भुगतान न करके उसकी स्थिति का गलत लाभ नहीं उठा सकती है। शीर्ष अदालत का कहना था कि किसी भी मजदूर को काम पूरा होने के एक पखवाड़े के भीतर अपना भुगतान पाने का अधिकार है और यदि कोई प्रशासनिक अक्षमता या खामी है तो यह पूरी तरह राज्य सरकारों और ग्रामीण विकास मंत्रालय की जिम्मेदारी है कि वे समस्या का समाधान करें।

जस्टिस मदन बी. लोकूर और जस्टिस एनवी रमण की पीठ ने कहा कि कानून के प्रावधानों का अनुपालन कराने का दायित्व राज्य सरकारों, केंद्रशासित प्रशासनों और केंद्र का है। कोई एक-दूसरे पर अपनी जिम्मेदारी थोप कर बच नहीं सकता। अदालत का यह आदेश सही भी है। अदालत ने केन्द्र सरकार और सभी राज्य सरकारों को उस जिम्मेदारी की तरफ ध्यान दिलाया है, जो उसने मनरेगा कानून के तहत बेरोजगार लोगों को देने का वादा किया है।

शीर्ष अदालत एनजीओ ‘स्वराज अभियान’ की एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही थी। याचिकाकर्ता ने अपनी इस याचिका में देश के अंदर गंभीर सूखे की स्थिति के मद्देनजर मनरेगा व अन्य कल्याणकारी कार्यक्रमों को लागू करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों के अपर्याप्त प्रयासों की ओर ध्यान आकर्षित किया था।

मामले की सुनवाई के बाद पीठ ने केन्द्र सरकार को निर्देश देते हुए कहा केंद्र सरकार, ग्रामीण विकास मंत्रालय के माध्यम से राज्य सरकारों और केंद्रशासित प्रशासनों के साथ परामर्श करके श्रमिकों की मजदूरी और मुआवजे के भुगतान के लिए तत्काल एक समयबद्ध कार्यक्रम तैयार करे। पीठ का इस बारे में कहना था कि मनरेगा कानून और अनुसूची दो के तहत एक मजदूर काम किए जाने की तारीख से दो हफ्तों के भीतर अपना मेहनताना पाने का हकदार है।

यदि यह मेहनताना दिया नहीं जाता है, तो मजदूर कानून की अनुसूची दो के अनुच्छेद 29 के मुताबिक मुआवजा पाने का हकदार है। अलबत्ता अदालत ने मनरेगा योजना को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा किए कुछ महत्वपूर्ण बदलावों के लिए मंत्रालय को बधाई भी दी। खंडपीठ ने कहा हालांकि, मंत्रालय को अभी भी व्याप्त बाधाओं को खत्म करने के लिए तत्काल उपचार के कदम उठाने की जरूरत है।

क्योंकि इस अधिनियम को लाखों बेरोजगार लोगों के जीवन को छूने के लिए अभी भी कुछ रास्ता तय करना है। मजदूरों को मजदूरी का भुगतान किए जाने की स्थिति में कुछ सुधार जरूर हुआ है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है।
यह पहली मर्तबा नहीं है, जब मनरेगा को लेकर उच्चतम न्यायालय ने सरकार को कोई दिशा निर्देश दिए हों, बल्कि इससे पहले भी वह कई निर्देश पारित कर चुका है।

अदालत ने दो साल पहले 13 मई 2016 के अपने एक आदेश में मनरेगा मजदूरों के मुद्दों पर ग्रामीण विकास मंत्रालय को स्पष्ट निर्देश दिया था कि वे मनरेगा को उसकी वास्तविक भावना के मुताबिक लागू करें। मनरेगा के तहत देश के सभी राज्यों को पर्याप्त राशि जारी की जाए और मजदूरों का समय पर भुगतान हो।

यदि मजदूरी भुगतान में देरी हो, तो उन्हें मुआवजे का भुगतान किया जाए। मनरेगा कार्यक्रम की प्रभावशाली निगरानी हो और इस कानून के सभी प्रावधानों का पालन सुनिश्चित हो। लेकिन अफसोस ! ग्रामीण विकास मंत्रालय, सर्वोच्च न्यायालय के निदेर्शों का लगातार उल्लंघन कर रहा है। मनरेगा कानून देश में सही तरह से लागू हो, मजदूरों को तयशुदा काम और उसको सही समय पर मजदूरी मिले, इसकी उसे कोई परवाह नहीं है।

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, साल 2006 में पूरे देश में अधिकार के रूप में लागू किया गया था। इस कानून से देश की लाखों ग्रामीण बेरोजगार आबादी को फायदा भी मिला। उन्हें विपरीत परिस्थितियों में रोजगार हासिल हुआ। लेकिन साल 2014 में यूपीए सरकार के जाने के बाद केन्द्र में सत्तानशीं हुई मोदी सरकार ने इस योजना को कभी गंभीरता से नहीं लिया। सरकार ने योजना के बजट में काफी कमी कर दी।

केंद्रीय बजट में इस योजना की लगातार अनदेखी की गई। साल 2018-19 के लिए मनरेगा का बजट सिर्फ 55,000 करोड़ रुपये है। इसके पहले साल 2017-18 का बजट भी मांग की अपेक्षा अपर्याप्त था। जिसका नतीजा, बेरोजगार लोगों को रोजगार देने और मजदूरी भुगतान में देरी के तौर पर सामने आता है।

आलम यह है कि हर वित्तीय वर्ष के आखिर में मनरेगा भुगतान की बकाया राशि कई हजारों करोड़ रुपयों की होती है। मनरेगा के लिए पर्याप्त बजट न होने के अलावा, मजदूरी भुगतान में देरी की और भी वजह हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय, राज्यों को कुछ शर्तों पर ही मनरेगा की राशि भेजता है। जैसे कुछ दस्तावेजों मसलन अपने निधियों के लेखापरीक्षित बयानों का जमा करना, उसके द्वारा दिए गए आदेशों का पालन आदि।

अगर राज्य ये शर्ते पूरी नहीं करते, तो उसका नुक्सान मजदूरों को होता है। वर्तमान स्थिति यह है कि देश के कई राज्यों में आधिकारिक रूप से मजदूरी का भुगतान रुका हुआ है। हरियाणा में मजदूरी का भुगतान 31 अगस्त 2017 से नहीं किया गया है, तो झारखंड, कर्नाटक और केरल समेत 12 राज्यों में भुगतान सितंबर 2017 से नहीं किया गया है। यही नहीं, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश समेत छह राज्यों में अक्टूबर 2017 से कोई भुगतान नहीं किया गया है।

नरेगा संघर्ष मोर्चा के मुताबिक, 9 करोड़ से ज्यादा मनरेगा मजदूरों को समय पर उनकी मजदूरी नहीं मिल रही है। वहीं उसके आंकलन के मुताबिक देरी से मिलने वाला भुगतान तकरीबन 3,066 करोड़ रुपए हो सकता है। मनरेगा में प्रावधान है कि यदि मनरेगा मजदूर को सरकार 100 दिनों का रोजगार मुहैया नहीं कराती है, तो उसे मुआवजा दिया जाएगा।

लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि मजदूरों को फंड ट्रांसफर आॅर्डर के बाद की प्रक्रियाओं में हुए विलम्ब के चलते मुआवजा नहीं मिलता। नरेगा संघर्ष समिति समेत दीगर स्वतंत्र शोधकतार्ओं द्वारा की गई गणना के मुताबिक साल 2016-17 में मनरेगा के संदर्भ में सरकारी एजेंसी ने कुल मुआवजे के केवल 43 फीसदी और साल 2017-18 में सिर्फ 14 फीसदी की गणना की।

वित्त मंत्रालय की एक रिपोर्ट खुद इस बात को मानती है कि मनरेगा मजदूरों को पूरा मुआवजा नहीं मिलता। रिपोर्ट के मुताबिक अगर मजदूरों को पूरा मुआवजा मिलेगा, तो मनरेगा पर खर्च भी बढ़ जाएगा। जिस राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक फंड मैनेजमेंट प्रणाली (एनईएफएमएस), जिसके माध्यम से मजदूरी का भुगतान अब सीधा केंद्र स्तर से किया जाता है, को ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा मजदूरी भुगतान में हो रही देरी के समाधान के तौर पर बार-बार सर्वोच्च न्यायालय में पेश किया जाता है, सच बात तो यह है कि वही प्रणाली भुगतान में देरी की एक और वजह बन गयी है।

कई राज्य सरकारों ने केंद्र सरकार द्वारा समय पर राशि हस्तांतरित न किए जाने की समस्या से निपटने के लिए चक्री राशि का प्रावधान रखा है। लेकिन एनईएफएमएस प्रणाली से मजदूरी भुगतान के केन्द्रीकरण के कारण वे इस राशि का प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय, मजदूरी के लंबित भुगतान का कारण राज्य सरकारों द्वारा लेखापरीक्षा रिपोर्ट और उपयोगिता प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने में देरी को बतलाता है, लेकिन इस तरह की देरी के लिए कोई कानूनी मुआवजा नहीं दिया जा रहा है।

इसके साथ ही राज्यों द्वारा नियमित प्रशासनिक कार्यों को समय पर न करने के कारण मजदूरी भुगतान में हो रही देरी के लिए राज्यों के खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई भी नहीं की जाती। केंद्र व राज्य सरकारों का यह रवैया सर्वोच्च न्यायालय के इस अवलोकन के विरुद्ध है, जिसमें उसने कहा था, ‘‘जब हजारों लोगों के वैध देय राशि के देरी से भुगतान के कारण उनके अधिकार प्रभावित होते हैं, तो यह राज्य, चाहे केंद्र सरकार हो या एक राज्य सरकार, द्वारा किया गया संवैधानिक उलंघन है।’’

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