राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर पर राजनीति बंद हो

politics over ncr should be stopped

पूर्वोत्तर में खासकर असम में अवैध बांग्लादेशियों का मुद्दा पुराना और नाजुक है। संघ और भाजपा इसे उठाते रहे हैं। उनका दावा रहा है कि 50 लाख से 2 करोड़ तक घुसपैठिए बांग्लादेशी पूर्वोत्तर राज्यों में बसे हैं। इतिहास के पन्ने पलटे तो पता चलता है कि बांग्लादेशी घुसपैठियों को लेकर असम के लोगों ने लंबी लड़ाई लड़ी है। उससे पहले राजीव गांधी सरकार ने 1985 में असम सरकार के साथ समझौता किया था। तब आल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) को भी समझौते में शामिल किया गया था। जिसमें तय किया गया कि फलां-फलां तारीख तक असम में बसे लोगों को ही नागरिक माना जाएगा। न सिर्फ असम वरन बंगाल और बिहार सहित पूरे देश में ही बांग्लादेश से सीमा पार कर घुस आए लोग एक बड़ी समस्या बन गये हैं। बंगाल में ममता बैनर्जी की पूर्ववर्ती वामपंथी सरकार ने भी अपने राजनीतिक वोट बैंक को मजबूत करने के लिये अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों को मतदाता बनवा दिया। असम में भी कांगे्रस की जितनी राज्य सरकारें बीते दशकों में बनती रहीं उन सभी ने वोटों की लालच में घुसपैठियों को भारत का नागरिक बनाने में संकोच नहीं किया। इसके परिणाम स्वरूप देश के पूर्वी हिस्सों में कई इलाकें ऐसे हैं जहां बांग्लादेशी घुसपैठियों के हाथ में राजनीतिक संतुलन बनाने-बिगाडने की ताकत आ गई। चूँकि इनमें से 99 फीसदी मुस्लिम हैं इसलिये भाजपा को छोड़ अन्य दलों को उनसे कोई परहेज नहीं रहा।

दरअसल एनआरसी की प्रक्रिया बुनियादी तौर पर 1951 में जनगणना के बाद से ही शुरू की गई थी। 1951 से 61 के बीच असम आए लोगों को पूर्ण नागरिकता और मताधिकार मिला था। 1961 और 71 के बीच आने वालों को नागरिकता और अन्य अधिकार दिए गए, लेकिन मताधिकार नहीं मिला। असम में 1971 से 2011 के बीच 40 सालों में करीब सवा करोड़ वोटर बढ़ गए। असम की आबादी 1971 के बाद बहुत बढ़ी है, लिहाजा रजिस्टर के लिए तय किया गया कि 24 मार्च, 1971 की आधी रात तक जो भारत में आया है, उन्हें यहीं का नागरिक माना जाए। इस तरह न तो इनसानियत का अधिकार छीना जा रहा है और न ही किसी के मानवाधिकार को कुचला जा रहा है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि असम में अवैध आबादी काफी है, लिहाजा 2015 में सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) अपडेट करना तय हुआ, ताकि वैध और अवैध नागरिक की पहचान की जा सके। यह प्रयास बुनियादी तौर पर गृह मंत्रालय का रहा है, लिहाजा केंद्र सरकार एकदम पल्ला नहीं झाड़ सकती, अलबत्ता जनगणना की तरह यह भी एक तकनीकी प्रक्रिया है। जनवरी, 2018 में रजिस्टर का पहला ड्राफ्ट सार्वजनिक किया गया, जिसमें 1.9 करोड़ नागरिकों को ही वैध माना गया। चूंकि 29 जुलाई को जो दूसरा ड्राफ्ट सामने आया है, उसमें 2 करोड़ 89 लाख 38, 677 लोगों की नागरिकता की पुष्टि हुई है, जबकि 40 लाख 52,703 लोग संदिग्ध पाए गए, लिहाजा उन्हें रजिस्टर से बाहर किया गया है। असम की कुल आबादी 3 करोड़ 29 लाख 91,380 है।

इस मुद्दे पर सत्ता में आई असम गण परिषद चूंकि अपने ही अंतर्विरोधों के चलते कमजोर होती चली गई इसीलिये असम में भाजपा ने इस मुद्दे को उछालकर पूर्वोत्तर की राजनीति में इस हद तक जगह बनाई कि असम में उसकी सरकार तक बन गई। वहीं बंगाल में वह वामपंथी दलों तथा कांग्रेस को पीछे छोड़कर ममता बैनर्जी की प्रमुख प्रतिद्वंदी बनती जा रही है। यही वजह है कि गत दिवस राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर का दूसरा प्रारूप जारी होने पर ज्योंही पता चला कि असम के 40 लाख लोगों के नाम उसमें नहीं है त्योंही कांग्रेस, वामदल तथा सपा तो चिल्लाए ही किन्तु सर्वाधिक हल्ला मचाया ममता बैनर्जी ने। इस बारे में उल्लेखनीय तथ्य ये है कि भारत के जनगणना आयुक्त ने असम में नागरिकता की पुष्टि हेतु जो रजिस्टर बनाया वह सर्वोच्च न्यायालय के निदेर्शानुसार है।

गत दिवस जारी प्रारूप में जिन 40 लाख लोगों के नाम छूट गए हैं उन्हें तत्काल देश निकाला देने जैसी कोई बात नहीं है। इस हेतु अभी और समय दिये जाने की बात केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने स्पष्ट रूप से कही भी परन्तु ममता सहित अन्य कई दल असमान सिर पर उठाने लगे तो मात्र इसीलिये कि एनआरसी में जिन 40 लाख लोगों की नागरिकता असम में नहीं मानी गई वे सब उन पार्टियों के वोट बैंक हैं। ममता यद्वपि बंगाल की मुख्यमंत्री हैं परन्तु उनकी भन्नाहट इस बात को लेकर है कि देर सबेर बंगाल का भी नंबर आया और तब उनकी पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने वाले लाखों बांग्लादेशियों की नागरिकता छिन जाएगी। 1971 में बतौर शरणार्थी भारत में करोड़ों बांग्लादेशी भारत के अवैध नागरिक बन बैठे। अब तो उनकी तीसरी पीढ़ी यहां रह रही है। इनके कारण देश की अर्थव्यवस्था तो प्रभावित हुई ही विगत वर्षो में देश के भीतर हुई तमाम आतंकवादी घटनाओं के तार बांग्लादेश से जुड़े पाए गए थे। देश के पूर्वी राज्यों में इन घुसपैठियों ने बड़ी मात्रा में सरकारी खासतौर पर वन भूमि पर जबरन कब्जा कर लिया। उस वजह से वहां रह रही जनजातियों से उनका खूनी संघर्ष तक हुआ।

असम तो खैर इनकी घुसपैठ का सबसे बड़ा शिकार था इसीलिये वहां खूब झगड़ा चला परन्तु देश की राजधानी दिल्ली से लेकर उत्तरी राज्यों में तो एक भी बड़ा शहर शायद ही होगा जहां बांग्लादेशी न बसे हों। इनकी पहिचान कर इनको वापिस भेजने का काम कितना संभव है ये कह पाना कठिन है क्योंकि बांग्लादेश सरकार इस बोझ को किस सीमा तक स्वीकार करेगी ये बड़ा सवाल है।

जिन 40 लाख लोगों का नाम अभी नागरिकता रजिस्टर में नहीं है उन्हें दस्तावेज प्रस्तुत करने का एक अवसर और देना सर्वथा न्यायपूर्ण है। इसीलिये जो दल इसका विरोध कर रहे हैं उन्हें राजनीतिक हित छोड़ राष्ट्रीय हितों का ध्यान रखते हुए इस प्रक्रिया के महत्व व जरूरत को समझना चाहिये। इसे अल्पसंख्यकों के विरूद्ध कहना बेहद गैर जिम्मेदाराना है। संसद में विपक्ष की दलीलें सिर्फ ये रहीं कि वे भी भारत के नागरिक हैं। उन 40 लाख से ज्यादा नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों को छीना कैसे जा सकता है? क्या एनआरसी हिंदू और मुसलमान, यानी धर्म के आधार पर तैयार और अपडेट किया जा रहा है? तृणमूल अध्यक्ष एवं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसे बांटो और राज करो की नीति करार दिया है। बहरहाल सियासत अपनी जगह है और नागरिकता रजिस्टर एक राष्ट्रीय दायित्व है। यदि 40 लाख से ज्यादा लोगों को अवैध और संदिग्ध माना गया है, तो सवाल है कि क्या वे सभी घुसपैठिया बांग्लादेशी हैं? उन्हें असम में पनाह किसने दी? वे अभी तक भारत के असम में क्यों बसे हैं? एनआरसी के मुद्दे पर भी भाजपा-गैर भाजपा का विभाजन कर देश को धर्मशाला बनाने की कोशिश कौन कर रहा है? राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर अपडेट करने का फैसला भाजपा सरकार का नहीं है। 2005 में यूपीए सरकार ने असम की कांग्रेस सरकार के साथ ही करार किया था।

असम के युवकों और छात्रों ने चार दशक तक इस मुद्दे को जीवित रखकर देश का जो हित किया उसके लिये उन्हें बधाई मिलनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने वहां जनगणना करवाकर नागरिकों का रजिस्टर तैयार करने का जो आदेश दिया था वह भी बहुत महत्वपूर्ण था क्योंकि वोटों के सौदागार अपनी सत्ता की खातिर देश हितों की बलि चढ़ाने पर आमादा थे। जिस राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का गत दिवस खुलासा हुआ उसे सरकार या भाजपा को किसी भी प्रकार से अपराध बोध में आने की जरूरत नहीं है क्योंकि अवैध घुसपैठियों के लिये इस देश में कोई जगह नहीं होनी चाहिए चाहे वे बांग्लादेशी हों या रोहिंग्या।

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