राजनीतिक दलों को ज्यादा वोट बैंक की फिक्र

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देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा एस.सी.-एस.टी. एक्ट के गलत इस्तेमाल को लेकर चिंता जाहिर करते हुए गत 20 मार्च को कुछ निर्देश दिए गए थे, जिसके विरोध में 2 अप्रैल को दलित समुदाय द्वारा भारत बंद के नाम पर देश के 20 राज्यों में हिंसा, अराजकता और आक्रामकता का ताण्डव किया गया था। हिंसा के उस तांडव के दौरान न केवल देशभर में अरबों रुपये की सम्पत्ति का नुकसान हुआ था बल्कि दर्जन भर लोग मौत के मुंह में भी समा गए थे। दरअसल अदालत ने एससीएसटी कानून के तहत प्राथमिकी दर्ज होते ही किसी की तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी और गिरफ्तारी के बाद अग्रिम जमानत का प्रावधान भी कर दिया था।

अदालत के इसी फैसले के विरोध में यह वर्ग सड़कों पर उतर आया था और इस वर्ग के प्रबल विरोध को देखते हुए गत दिनों केन्द्र सरकार ने मानसून सत्र के दौरान देश की सुप्रीम अदालत के फैसले को पलटते हुए आनन-फानन में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति संशोधन विधेयक 2018 को संसद में पारित करा दिया, जिसके बाद से सवर्ण वर्ग भी गुस्से से उबल रहा है और इसी गुस्से का इजहार करने के लिए 6 सितम्बर को भारत बंद का आयोजन किया गया। कई राज्यों में इसका व्यापक असर देखा भी गया। संतोषजनक बात यह रही कि सवर्ण वर्ग द्वारा आयोजित इस बंद के दौरान छिटपुट घटनाओं को छोड़कर हिंसा की अप्रैल के दलित प्रदर्शन जैसी कोई बड़ी घटनाएं सामने नहीं आई।

भले ही राष्ट्रीय स्तर पर किसी संगठन द्वारा बंद का आव्हान नहीं किया गया था किन्तु फिर भी सवर्ण वर्ग के प्रदर्शन के व्यापक प्रभाव को देखते हुए अब अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति संशोधन विधेयक 2018 को लेकर सत्तारूढ़ भाजपा के भीतर जंग की शुरूआत होना तय है और इसके संकेत पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं के बयानों से मिलने भी लगे हैं। सुब्रह्मण्यम स्वामी का कहना है कि इस एक्ट पर कोर्ट का फैसला आने के बाद ही उन्होंने कहा था कि इसे स्वीकार करना चाहिए लेकिन तब पार्टी ने उनकी बात नहीं सुनी। वहीं पूर्व मंत्री और भाजपा सांसद कलराज मिश्रा ने भी बयान दिया है कि जब एक बार फिर से इस कानून में बदलाव किया है, उसके बाद से सवर्ण समाज में असुरक्षा की भावना बढ़ी है।

उन्होंने तो यहां तक कहा है कि इस एक्ट का दुरूपयोग सवर्ण समाज के खिलाफ किया जा रहा है, सवर्ण समाज में फर्जी तरीके से पूरे परिवारों को इस एक्ट में फंसाया जा रहा है, पुलिस भी दबाव में काम कर रही है, जिससे सवर्ण समाज अपने आप को असंतुष्ट और असुरक्षित महसूस कर रहा है और इसीलिए अब इस एक्ट के विरोध में सवर्ण समाज विरोध प्रदर्शन कर रहा है। कई अन्य भाजपा नेता भी इसी प्रकार अपनी ही सरकार के फैसले का विरोध करने लगे हैं हालांकि सवर्ण समाज का कहना है कि वह किसी खास समुदाय के खिलाफ नहीं है लेकिन केन्द्र सरकार को सवर्ण समाज की भावना का भी सम्मान करना चाहिए। दरअसल सवर्ण समुदायों का कहना है कि दहेज प्रथा कानून की ही भांति एससीएसटी एक्ट का भी दुरुपयोग कर उन्हें झूठे मामलों में फंसाया जाता रहा है और इसीलिए ये लोग इस एक्ट पर उच्चतम न्यायालय के फैसले को बहाल करने की मांग कर रहे हैं।

सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले के बाद स्पष्ट किया था कि उसने एस.सी.-एस.टी. एक्ट के किसी भी प्रावधान को कमजोर नहीं किया बल्कि सिर्फ निर्दोष व्यक्तियों को गिरफ्तारी से बचाने के लिए उनके हितों की रक्षा की है क्योंकि इस एक्ट के प्रावधानों का इस्तेमाल निदोर्षों को आतंकित करने के लिए नहीं किया जा सकता। अदालत ने स्पष्ट कहा था कि दलित आन्दोलन करने वालों ने उसके फैसले को सही ढ़ंग से पढ़ा ही नहीं और निहित स्वार्थी लोगों ने उन्हें गुमराह किया। दरअसल एससी-एसटी उत्पीड़न रोकथाम कानून इसीलिए अस्तित्व में लाया गया था ताकि सदियों से दमन के शिकार वंचित समाज को सामाजिक विसंगितयों तथा अन्याय से मुक्ति दिलाने के साथ दबंगों के उत्पीड़न से उनके आत्मस्वाभिमान की भी रक्षा की जा सके किन्तु पिछले कुछ वर्षों के दौरान दलित एक्ट का निदोर्षों के खिलाफ जिस बड़े पैमाने पर दुरूपयोग होता रहा है, उसके मद्देनजर अगर देश की सर्वोच्च अदालत ने कोई ऐसी पहल की, जिससे एक एक्ट की आड़ में निर्दोष व्यक्ति बेवजह जिल्लत के शिकार न हों तो इसमें किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए थी।

विड़म्बना यह है कि तमाम राजनीतिक दलों को सामाजिक सद्भावना से कहीं ज्यादा अपने वोट बैंक की फिक्र है और यही वजह रही कि 6 सितम्बर के बंद को लेकर न भाजपा, न कांग्रेस और न ही किसी अन्य प्रमुख राजनीतिक दल की ओर से अधिकारिक प्रतिक्रिया सामने नहीं आई क्योंकि अगर वे इसका समर्थन करते हैं तो दलित नाराज हो जाएगा और विरोध करते हैं तो सवर्ण कुपित होगा, इसलिए ऐसे मसलों पर चुप्पी साधकर सभी दल एक-दूसरे पर ठीकरा फोड़कर भ्रम फैलाने में ही मशगूल रहते हैं।

योगेश गोयल

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