अब एक भारत, एक चुनाव की आवश्यकता

Announcement, Gujarat Elections, BJP, Narendra Modi, Congress

भारत में बदलाव की हवा बह रही है। क्या हमारा देश चुनावों में सुधार के लिए तैयार हो रहा है? क्या हमारा देश निरंतर चुनावों पर रोक लगाने की दिशा में बढ़ रहा है, जिसके चलते हमारी राजनीति और शासन व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है? क्या हमारा देश लोकसभा और राज्य विधान सभाओं के लिए एक साथ चुनाव करवाए जाने की दिशा में आगे बढ़ रहा है? ऐसा लगता है।

चुनाव आयोग ने भी इस दिशा में कुछ सकारात्मक बातें कही हैं और यह संकेत दिया है कि अगले वर्ष सितंबर के बाद वह ऐसा कर सकता है, हालांकि लोकसभा चुनाव 2019 में होने हैं और यदि ऐसा किया जाता है, तो न केवल चुनाव प्रचार पर पैसा और समय की बचत होगी।

अपितु वोट बैंक को नाराज किए जाने की चिंता किए बिना केन्द्र और राज्य सरकारें लोकहित में कठोर निर्णय लेने में सक्षम होंगी तथा सुशासन दे पाएंगे। चुनावों को ध्यान में रखते हुए अनेक अच्छे निर्णय और योजनाएं इसलिए लागू नहीं किए जाते कि इससे जातीय, सामुदायिक, धार्मिक और क्षेत्रीय समीकरण बिगड़ेंगे। जिसके चलते नीतिगत पंगुता आती है तथा योजनाओं और कार्यक्रमों का ठीक से कार्यान्वयन नहीं हो पाता।

यही नहीं इसके चलते राजनीतिक ऊर्जा वोट बैंक की राजनीति में लगानी पड़ती है। हमारे यहां हर वर्ण, जाति, और पंथ के राजनेताओं ने इस बीमारी को बढ़ने दिया है और इसके चलते सुशासन प्रभावित हुआ है। बार-बार चुनावों के चलते प्रशासन को भुला दिया जाता है। प्रश्न यह उठता है कि क्या संसद और राज्य विधान सभाओं के एक साथ चुनाव कराने का वक्त आ गया है।

क्या संसद और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराए जा सकते हैं और यदि हां, तो क्या यह राष्ट्रीय हित में होगा। नि:संदेह अक्षमता, उदासीनता और कुशासन से मुक्ति पाने का यह एक तरीका हो सकता है। किंतु इस विचार पर सभी स्तरों पर चर्चा की जानी चाहिए और अंतिम निर्णय पर पहुंचने से पहले इसके लाभ-हानि पर गहन विचार होना चाहिए, क्योंकि इस बदलाव में संविधान के बुनियादी ढांचे में बदलाव करना पड़ेगा।

लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप का मत है कि लोकसभा और विधान सभाओं के एक साथ चुनाव कराने के लिए कानून या संविधान में संशोधन करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि अनुच्छेद 172 में विधान सभा का एक निर्धारित कार्यकाल का प्रावधान है।

वस्तुत: विधि आयोग की 1999 की रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘‘प्रत्येक वर्ष चुनावों के इस चक्र पर रोक लगा दी जानी चाहिए और आयोग ने सिफारिश की कि लोक सभा और विधान सभा के एक साथ चुनाव कराने की दिशा में बढ़ा जाना चाहिए।’’ आयोग ने यह भी कहा कि यदि किसी सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाया जाता है, तो साथ-साथ वैकल्पिक सरकार के लिए विश्वासमत भी लाया जाना चाहिए, ताकि किसी भी बहुमत वाली या अल्पमत वाली सरकार के लिए 5 साल का कार्यकाल निर्धारित किया जा सके।

संसद की एक समिति ने भी दिसंबर 2015 में इसी तरह की सिफारिश की है। समिति का मत था कि इससे आवश्यक सेवाएं उपलब्ध कराने में सुधार आएगा और ठोस नीतियां बनायी जाएंगी, क्योंकि आदर्श आचार संहिता के लागू होने के कारण कोई नई नीति या कार्यक्रम लागू नहीं किया जा सकता है।

हमारे देश में पहले चार आम चुनाव – 1952, 1957, 1962 और 1967 के चुनाव लोकसभा और राज्य विधान सभाओं के लिए साथ-साथ कराए गए थे। 1971 में इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर दी थी और इसके चलते लोकसभा चुनाव एक वर्ष पहले कराने पड़े और तब से यह क्रम टूट गया। उसके बाद केन्द्र और राज्यों में अनेक अस्थिर सरकारें आयी। फलत: अनेक विधान सभाएं और लोकसभा को समय से पूर्व भंग करना पड़ा।

संवैधानिक विशेषज्ञों का मत है कि दोनों चुनावों का घालमेल नहीं किया जाना चाहिए। यह प्रस्ताव राजनीतिक स्वार्थ प्रेरित हो सकता है। जब लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव साथ-साथ कराए जाएंगे, तो हो सकता है मतदाता एक ही पार्टी को मत दें। साथ ही केन्द्र और राज्य स्तर पर चुनावी मुद्दे अलग-अलग होते हैं, इसलिए दोनों के चुनाव अलग-अलग ही कराए जाने चाहिए।

लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराने से मतदाताओं में भी भ्रम हो सकता है। हो सकता है कोई पार्टी उसकी नीतियों और कार्यक्रमों के कारण केन्द्र में समर्थन प्राप्त करने की हकदार हो, किंतु राज्य स्तर पर ऐसा न हो। हालांकि विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराए जा सकते हैं और उनका एक निर्धारित कार्यकाल नियत किया जा सकता है।

यदि कोई निर्वाचित सरकार गिर जाती है, तो उस विधान सभा के कार्यकाल को पूरा होने तक राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है। किंतु लोकसभा का एक नियत कार्यकाल नहीं हो सकता है, क्योकि केन्द्र में राष्ट्रपति शासन का प्रावधान नहीं है और इससे समस्याएं हल होने के बजाए उलझेगी ही।

साथ ही लोकसभा और विधान सभाओं का निर्धारित कार्यकाल नियत करना संसदीय लोकतंत्र के सिद्धान्तों के विरुद्ध है और यह उपचार बीमारी से भी अधिक खराब है। निर्धारित कार्यकाल का तात्पर्य है कि यदि जन-समर्थन प्राप्त करने वाली सरकार अल्पमत में आ जाती है, तो वह बनी रहेगी या उसके स्थान पर कोई ऐसी सरकार बन सकती है, जिसे जनसमर्थन प्राप्त न हो। इसका तात्पर्य है कि ऐसी सरकार बना दी जाएगी, जिसे लोकसभा या विधानसभा का विश्वास प्राप्त न हो और यह एक तरह से तानाशाही और राजशाही अराजकता का स्वरूप ले लेगा और वह सरकार जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करेगी।

लोकसभा और विधान सभाओं के एक साथ चुनाव कराने का सबसे बड़ा लाभ वित्तीय बचत है। आंकड़े बताते हैं कि जब 1952 में लोक सभा और विधान सभाओं के लिए पहले आम चुनाव कराए गए थे, तो उन पर दस करोड़ रूपए खर्च हुए थे। 1957 में छह करोड़ और 1962 में 7.5 करोड़ रूपए खर्च किए गए। चुनावों पर खर्च 1977 के बाद बढ़ा।

1980 में 23 करोड़ रूपए, 1989 में 154 करोड़ रूपए और 1991 में 359 करोड़ रूपए तथा 1999 में 880 करोड़ रूपए खर्च हुए। 2004 के चुनाव पर 1300 करोड़ रूपए और 2014 के लोकसभा चुनाव पर 4500 करोड़ रूपए खर्च किए गए। आज इसलिए भी भ्रम की स्थिति पैदा हो गयी है कि विभिन्न राज्यों की विधान सभाओं का कार्यकाल अलग-अलग समय पर हो रहा है।

चुनावों की लागत अत्यधिक बढ़ गयी है। बिहार विधान सभा चुनावों पर 400 करोड़ रूपए से अधिक और उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव पर इससे दोगुनी राशि खर्च हुई। इस तरह बार-बार होने वाले चुनावों पर करदाताओं के पैसे को अविवेकपूर्ण ढंग से खर्च किया जा रहा है।

2011 में केरल, तमिलनाडू, असम, पुडुचेरी, और बंगाल विधान सभाओं के चुनाव हुए। 2012 में उत्तर प्रदेश, गोवा, पंजाब, मण्पिुर और उत्तराखंड के चुनाव हुए। 2013 में दिल्ली, छत्तीसगढ, मध्य प्रदेश, राजस्थान और मिजोरम विधान सभाओं के चुनाव हुए। 2014 में लोक सभा चुनाव और दिल्ली, महाराष्ट्र, हरियाणा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश विधान सभाओं के चुनाव हुए।

2015 बिहार, झारखंड, और जम्मू-कश्मीर विधान सभा के चुनाव हुए तथा पिछले वर्ष केरल, बंगाल और असम विधान सभाओं के चुनाव हुए। फिर इस समस्या का समाधान क्या है? क्या हमें अमरीकी मॉडल पर विचार करना चाहिए, जहां पर राष्ट्रपति और राज्यों के गर्वनरों का चुनाव चार साल की निर्धारित अवधि के लिए सीधे जनता द्वारा किया जाता है और वे अपनी टीम चुनते हैं तथा वहां राष्ट्रपति हाऊस और रिप्रजेंटेटिव तथा सीनेट के प्रति उत्तरदायी होता है।

किंतु उसे विश्वासमत लेने की आवश्यता नहीं होती है। इससे सुशासन, स्थिरता और निरंतरता सुनिश्चित होती है, जिसके चलते शासक वर्ग सत्ता खोने के भय से कठिन निर्णय लेने में हिचकिचाता नहीं है। कुल मिलाकर चुनाव हमारे लोकतंत्र के आधार हैं। किंतु बार-बार चुनावों से बचा जाना चाहिए।

-पूनम आई कौशिश

 

Hindi News से जुडे अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।