बिल्ली के गले में घंटी बांधने की जरूरत

Bell, Cat, Throat

वर्ष 1975 की गर्मियों में सैगोन के पतन के बाद राजनीतिक दमन के भय से दक्षिण वियतनाम से हजारों लोगों ने पलायन किया। वे टूटी फूटी नौकाओं में भाग निकले। यह पलायन समुद्र द्वारा शरण लेने वाले लोगों का सबसे बड़ा पलायन था और इसके चलते उन्हें बोट पीपुल की संज्ञा दी गयी। विश्व के देशों ने काफी नाटक करने के बाद उन्हें शरण दी।

अमरीका ने आरंभ में आनाकानी की ंिकंतु बाद में उसने इन लोगों को शरण दी। उसके बाद कनाडा, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, थाईलैंड, मलेशिया, जापान और यहां तक छोटे से देश बरमुडा ने भी उन्हें शरण दी। 14 वर्ष बाद 1989 में विश्व के देशों का मन बदला और ये बोट पीपुल उनके गले की फांस बन गए क्योंकि समुद्र से नए बोट पीपुल आने लगे थे और वे आर्थिक शरणार्थी थे। उनमें किसान, फैक्टरी कामगार, और श्रमिक थे जो सुरक्षित स्थानों पर आजीविका की तलाश में गए थे। उनके पास इस बात का कोई प्रमाण नहीं था कि यदि वे वापस लौटे तो उनका दमन किया जाएगा।

वर्ष 2016 में फिर से बोट पीपुल देखने को मिले। सीरिया के 22 मिलियन लोगों ने छह वर्ष के गृह युद्ध के बाद विश्व के विभिन्न देशों में शरण मांगी जिनमें से 13.5 मिलियन लोगों को मानवीय सहायता चाहिए थी और पांच मिलियन लोगों ने विभिन्न यूरोपीय देशों में शरण मांगी। एक वर्ष बाद एक लाख 64 हजार रोहिंग्या मुसलमान म्यांमार के राखिने प्रांत से भागे और उन्होंने भारत और बंगलादेश में शरण ली। भारत में लगता है इतिहास ने अपना एक चक्कर पूरा कर दिया।

बंगलादेश से आए अवैध अप्रवासियों ने असम को अपना घर बना दिया था किंतु लगता है अब ऐसा नहीं होगा और इसका कारण राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर है जिसमें 3.29 करोड लोगों ने भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन किया। जिनमें से 2.89 करोड लोगों को नागरिकता दी गयी और 40 लाख लोगों का भाग्य अधर में लटक गया। अवैध अप्रवासियों की पहचान और उन्हें वापस भेजने की दिशा में पहला कदम उठने के लिए सरकार साधुवाद की पात्र है।

इस पर विपक्षी नेताओं ने खूब शोर मचाया। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी खून खराबे और गृह युद्ध की धमकी दे रही हैं। वे यह भूल गयी हैं कि इस समस्या की शुरूआत 1951 में हुई जब पूर्वी पाकिस्तान से आए अप्रवासी असम में बसे और इसका मुख्य कारण 4096 किमी लंबी भारत-बंगलादेश सीमा पर सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम न होना है।

उसके बाद आॅल असम स्टूडेंट यूनियन (आसू)ने 1985 में आंदोलन किया और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने असम समझौते के अंतर्गत अव्रैध अप्रवासियों की पहचान और उन्हें वापस भेजने का वायदा किया। इन अवैध अप्रवासियों के कारण विशेषकर असम के सीमावर्ती जिलों तथा पूर्वोत्तर के अन्य छह राज्यों और पश्चिम बंगाल में जनांकिकी बदली जिसके दूरगामी राजनीतिक परिणाम हो सकते हैं।

तीन दशक तक यह मुद्दा राजनीतिक बहसका विषय बना रहा और अंतत: 2015 में उच्चतम न्यायालय ने सरकर को निर्देश दिया कि वह नागरिकता ;नागरिकों का पंजीकरण और राष्ट्रीय पहचान पत्र जारीकरनाद्ध नियम 2003 के अंतर्गत राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को अद्यतन बनाए। यह प्रक्रिया 2016 में शुरू हुई और भाजपा इससे राजनीतिक लाभ लेना चाहीत है और कांग्रेस तथा तूणमूल कांग्रेस को हाशिए पर ले जाना चाहती है साथ ही उन पर अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण का आरोप भी लगाना चाहती है।

विरोधाभास देखिए। धर्मनिरपेक्ष दल धर्मनिरपेक्षता की कसमें खाते हैं किंतु अल्पसंख्यक वोट बैंक की प्रतिस्पर्धा के कारण उन्होंने इस मुद्दे का साम्प्रदायीकरण किया। इनमें से अधिकतर दलों ने अपने वोट बैंक को बढाने की खातिर इन अव्रैध अप्रवासियों को आने दिया जिसके परिणामस्वरूप असम की जनांकिकी पूरी तरह बदल गयी है और इससे स्थानीय लोगों की आजीविका और पहचान के लिए खतरा पैदा हुआ।

असम के 27 जिलों में से आठ जिले मुस्लिम बहुल जिले बन गए हैं और 126 विधान सभा सीटों में से 60 सीटों पर उनकी निर्णायक भूमिका है। असम में जिस वन भूमि पर अतिकम्रण किया गया है उसमें से 85 प्रतिशत पर बंगलादेशी बसे हैं।

खुफिया रिपोर्टों के अनुसार 1901 से 1971 के दौरान असम की जनसंख्या 3.29 मिलियन से बढकर 14.6 मिलियन हो गयी अर्थात इसमें 343.77 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि भारत की जनसंख्या में 150 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इस दौरान असम की प्रजनन दर 126.5 प्रतिशत थी जो अखिल भारतीय 137.3 प्रतिशत से कम है। असम के बंगलादेश से लगे जिलों में मुसलमानों की जनसंख्या में 60 प्रतिशत की वृद्धि र्हइु। स्पष्ट है कि यह अवैध अप्रवासियों के कारण अस्वाभाविक वृद्धि थी।

असम में बाहरी लोगों के प्रति विरोध के कारण वहां बार-बार हिंसक छात्र आंदोलन होते रहते हैं। नागालैंड की जनसंख्या में मुसलमानों खासकर अवैध बंगलादेशी अप्रवासियों की संख्या पिछले दशक में 20 हजार से बढकर 75 हजार तक पहुंची। त्रिपुरा में स्थानीय पहचान लगभग समाप्त हो गयी है। यही नहीं बिहार के सात जिलों, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश भी अवैध अप्रवासियों के कारण प्रभावित हुए हैं। देश की राजधानी में 12 लाख और महाराष्ट्र में एक लाख से अधिक अवैध बंगलादेशी हैं।

राजस्थान और मध्य प्रदेश में बंगलादेशियों ने राशन कार्ड तक प्राप्त कर लिए हैं जो स्थानीय लोगों के रोजगार को छीन रहे हैं। भारत में पहले से डेढ लाख तिब्बती शरणाीर्थी, 70 हजार अफगानी, एक लाख श्रीलंकाई तमिल, 3.50 लाख नेपाली श्रणार्थी रहे रहे हैं जबकि देश की जनसंख्या लगातार बढ रही है। देश में अवैध अप्रवासियों का अनुपात प्रति 100 लोगों पर 2.5 है जो स्थानीय संसाधनों पर अत्यधिक दबाव डाल रहा है जिसके कारण बेरोजगारी बढ रही है और मजदूरी कम हो रही है।

जर्मन चांसलर मर्केल अपने निर्णय पर अब पश्चाताप कर रही हैं। फ्रांस 2030 तक अपने देश के इस्लामीकरण से डर रहा है। डेनमार्क और स्कैंडेनेवियन देश ऐसे शरणार्थियों को बाहर खदेड रहे हैं। ये सभी देश समझने लगे हैं कि इससे न केवल जनांकिकीय बदलाव और सांस्कृतिक बदलाव आ रहे हैं अपितु उनके देशों में सीमित संसाधनों के कारण बेरोजगारी और अपराध भी बढ रहे हें।

अमरीकी राष्ट्रपति टंप ने अप्रवासियों का जीवन कठिन बना दिया है। फिर इस समस्या का समाधान क्या है? वोट बैंक की राजनीति करें? अव्रैध अप्रवासियों की की पुश एंड पुल थ्योरी को चलने दें? इन अवैध अप्रवासियों को वापस भेजें या भारत में रहने दें? विकल्प सीमित हैं और इस समस्या का समाधान भारत के मुख्य हितों: एकता और स्थिरता को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए।

किंतु यह आसान नहीं है क्योंकि विपक्ष चाहता है कि सरकार इन अवैध अप्रवासियों के बारे में मानवीय दृष्टिकोण अर्थात उनके वोट बैंक का ख्याल रखे। बंगलादेशी अपने वोटों को यहां ठहरने के अधिकार के व्यापार के रूप में उपयोग कर सकते हैं और उसके लिए उन्हें धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का समर्थन प्राप्त है। क्या सरकार इस बारूद के ढे़र को निष्क्रिय करने में सक्षम है?

अवैध अप्रवासियों को स्पष्ट संदेश देने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए। इस मुद्दे पर ढुलमुल रवैये से काम नहीं चलेगा। इस समस्या की गंभीरता को समझना होगा और इसका समयबद्ध ढंग से समाधान करना होगा। राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर ने राह दिखा दी है। केवल कठोर बातों को करने के अलावा मोदी को अवैध अप्रवासी रूपी बिल्ली के गले में घंटी बांधनी होगी।

 

 

 

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