गठबंधन की लीला से मुक्त मायावती

Mayawati, Coalition Alliance

ससर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय के बोल बोलने वाली बसपा प्रमुख मायावती ने छत्तीसगढ़ के बाद मध्य-प्रदेश और राजस्थान के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से कन्नी काटने का फैसला लेकर गठबंधन की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। कांग्रेस को यह निर्णय जहां करारा झटका है, वहीं अंदरूनी तौर से भाजपा की बांछें खिल गई हैं। दरअसल कांग्रेस ने इन तीन राज्यों में बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन की बुनियाद पर चुनावी वैतरणी पार करने का ताना-बाना लगभग बुन लिया था।

लेकिन मायावती ने राजनीति के रण में पहले उन अजीत जोगी से समझौता किया, जो छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की जड़ों में मट्ठा घोल चुके हैं और अब मध्य-प्रदेश व राजस्थान में कांग्रेस से गठबंधन नहीं करने की घोषणा करके एक बार फिर कांग्रेस को सकते में डाल दिया है। मायावती की राजनीतिक चालों को चलने वाले जानते हैं कि उनका किसी भी दल से स्थायी गठबंधन लंबे समय तक नहीं चला। इसीलिए उन्हें माया महा ठगिनी, सब जग जानी की संज्ञा दी जाती रही है। अर्थात माया चलायमान हैं।

मायावती को समझना दूर की कौड़ी है। इसीलिए उन्होंने अपने फैसले पर कहा है कि कांग्रेस के भीतर एक तरह का जातिवादी और सांप्रदायिक मानस काम करता है, जो भाजपा को लाभ पहुंचाना चाहता है। नतीजतन भाजपा से समझौते में रोड़ा अटका रहा है। दूसरी तरफ कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह का कहना है कि मायावती प्रवर्तन निदेशालय और अनुपात हीन संपत्ति के मामले में सीबीआई के दबाव में हैं।

सिंह की बात में दम है, क्योंकि एक तो मायावती की राजनीति का आधार ही केवल जाति है और अब जाति के मामले में भी उनका दायरा सिमट रहा है। वे केवल अनुसूचित जातियों में अपनी ही जाति की धुरी पर पर केंद्रित रह गई हैं। दूसरे, मायावती का माया से मोह किसी से छिपा नहीं है। नोटों की माला पहनते-पहनते वे हाल ही में 50 करोड़ की लागत से निर्मित आलीशान बंगले में रहने लगी हैं। जो विलास और वैभव के भौतिक संसाधनों से समृद्ध है। यही वे उपाय है, जो माया को बेनामी संपत्ति एकत्रित करने से जोड़ते हैं। इस लिहाज से दिग्विजय सिंह का यह कहना कि वे ईडी और सीबीआई के दबाव में हैं तो यह तथ्य बेवजह नहीं है।

दरअसल मायावती ही नहीं इस समय सभी दल प्रमुख फूंक-फूंक कर कदम आगे बढ़ा रहे हैं। मायावती और भी ज्यादा सधे कदमों से इसलिए चल रही हैं, क्योंकि वे अनुभव कर रही हैं कि इन राज्यों में कांग्रेस से समझौते के बाद भी उन्हें बहुत ज्यादा सीटें मिल जाएं मुश्किल हैं ? ऐसा इसलिए हुआ है कि क्योंकि वे महज एक ही जाति के वोट बैंक पर धु्रवीकृत हो गई हैं।

मध्य-प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के 2013 के विधानसभा चुनाव में उन्हें क्रमश: 6.29, 3.4 और 4.27 प्रतिशत ही वोट मिल पाए थे। बसपा मप्र में 4, छत्तीसगढ़ में एक और राजस्थान में 3 सीटें ही जीत पाई थी। उन्हें सबसे ज्यादा उम्मीद उत्तर-प्रदेश से थी, लेकिन वहां उनका मोदी और योगी के नेतृत्व में एक तरह से सूपड़ा साफ हो गया। साफ है माया और बसपा उतार पर हैं।

उप्र में मायावती दलित, सवर्ण और पिछड़ों का बेमेल खेल खेलकर सत्ता का स्वाद चख चुकी हैं। इसीलिए अब वे प्रधानमंत्री बनने की महत्वकांक्षा पाले हुए हैं। लेकिन अब एससी-एसटी एक्ट को लेकर पिछले 4-5 माह में जिस तरह से दलित चेतना और सवर्ण आंदोलन के सिलसिले ने राजनीतिक परिदृश्य बदला है, उसके चलते इन तीन राज्यों में कांग्रेस हो या भाजपा चुनाव कांटे की टक्कर में बदल गया है।

ऐसे में छत्तीसगढ़ में मायावती का कांग्रेस के बागी जोगी से हाथ मिलाना और मध्य-प्रदेश व छत्तीसगढ़ में कांग्रेस से गठबंधन न हो पाना कांग्रेस के लिए शुभ संकेत नहीं है। यदि कांग्रेस और बसपा के बीच समझौता हो जाता तो कांग्रेस की सत्ता में वापसी आसान हो जाती। हालांकि कांग्रेस राजस्थान में माया से गठबंधन नहीं होने के बावजूद मजबूत है।

कांग्रेस माया से तालमेल नहीं होने का कारण सीटों का बंटवारा रहा है। दरअसल कांग्रेस का विभिन्न गढ़ों में जाति आधारित जो क्षेत्रीय नेतृत्व है, वह अपने प्रभुत्व को गठबंधन के नाम पर बलिदान करने के पक्ष में नहीं है। इस दबाव के चलते कांग्रेस, बसपा को राजस्थान में 10, मप्र में 20 और छत्तीसगढ़ में मात्र 6 सीटें देने को तैयार थी, जबकि मायावती इनसे दूनी सीटें चाहती थीं। समझौते की बातचीत के दौरान अपनी बात रखते हुए मायावती ने दलील दी थी कि मेरा मतदाता एक वोट बैंक की तरह गठबंधन वाले दल को शत-प्रतिशत स्थानांतरित हो जाता है, जबकि सवर्ण मतदाता ऐसा नहीं करता। लेकिन गंगा में अब बहुत पानी बह चुका है।

मायावती का जनाधार खिसका है। उसका झुकाव अब फिर से कांग्रेस की ओर बढ़ रहा है। ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि बसपा की इन तीनों राज्यों में अकेले दल के रूप में सत्ता पर काबिज होने की संभावना दूर-दूर तक नहीं है। गोया, मायावती को अब उनका कोई पुख्ता वोट-बैंक है, इस मुगालते से बाहर आना चाहिए। इस तथ्य का सत्यापन चुनावी आंकड़ों से होता है।

इस बार इन तीनों राज्यों में से सबसे ज्यादा दिलचस्प चुनाव मप्र में देखने को आएगा। भाजपा मोदी मैजिक और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान के कामों के बूते जीत की उम्मीद लगाए हुए है। अलबत्ता अनुसूचित जाति-जनजाति कानून में संशोधन करने की भूल उसकी जीत में बड़ी बाधा बनकर पेश आ रही है। सपाक्स ने राज्य की सभी 230 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान करके उसे खुली चुनौती दे दी है। करणी सेना भी काले झण्डे हाथ में लिए भाजपा के विरोध में खड़ी है।

इधर कांग्रेस में कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया सत्ता वापसी की पुरजोर कोशिशों में लगे हैं। कमलनाथ को अपने बढ़े कद के चलते हर बात के अनुमोदन के लिए दिल्ली ताकना नहीं पड़ता है। इसीलिए सिंधिया और सिंह कमलनाथ के साथ बिना किसी हिचक के हंै। किस नेता को कितना वजन और काम देना है, इसका निर्णय वे स्वयं लेने का हक रखते हैं। इसीलिए कांग्रेस की चुनावी चाल भले ही धीमी हो, लेकिन सधी हुई है। लिहाजा यह कतई जरूरी नहीं है कि कांग्रेस का बसपा से गठबंधन नहीं हुआ तो मध्य-प्रदेश में उसकी ताकत कम आंकी जाए।

प्रमोद भार्गव

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