महादेवी वर्मा ने उठाई महिला मुक्ति की आवाज

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जब बहुत कम महिलाएं लेखन के क्षेत्र में आती थीं। ऐसे में महादेवी वर्मा ने लेखन के जरिये ना केवल अपने समय को वाणी दी, बल्कि दो कदम आगे बढ़कर अपनी लेखनी और कार्यों के जरिये महिला मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। 20वीं सदी की सबसे अधिक लोकप्रिय महिला साहित्यकार और आधुनिक मीरा के रूप में विख्यात महादेवी वर्मा हिन्दी साहित्य में छायावादी कविता के चार आधार स्तंभों में से एक हैं। आधुनिक गीत काव्य में महादेवी का स्थान सर्वोपरि है।

प्रेम की पीर और भावों की तीव्रता से पूर्ण उनके गीतों के अलावा गद्य में उनके लिखे संस्मरण एवं रेखाचित्र बहुत प्रसिद्ध हैं। खड़ी बोली को परिष्कृत बनाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने खड़ी बोली को ब्रजभाषा की कोमलता प्रदान की। निराला ने उन्हें हिन्दी के विशाल मंदिर की सरस्वती कह कर सम्मानित किया है।

महादेवी के पिता गोविंद प्रसाद वर्मा भागलपुर के एक कॉलेज में प्राध्यापक थे। उनकी माता हेमरानी देवी अध्ययनशील थीं और मीरा के पद विशेष रूप से गाती थी। छायावाद के अन्य स्तंभों में शामिल सुमित्रानंदन पंत एवं निराला उनके मानस बंधु थे। वे सात वर्ष की अवस्था में ही कविता लिखने लगी थीं। क्रास्थवेट गर्ल्स कॉलेज के छात्रावास में रहते हुए सुभद्रा कुमारी चौहान के पूछने पर जब महादेवी ने उनसे कविता लिखने की बात छुपाई तो सुभद्रा ने डेस्क में रखी उसकी किताबों की छानबीन की।

किताबों में ही महादेवी वर्मा की लिखी कविताएं भी निकल आई और सुभद्रा कुमारी ने सबको बता दिया कि महादेवी कविताएं लिखती है। जब अन्य सहेलियां खेल रही होती तो छात्रावास में पेड़ की डाल पर बैठ कर महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी तुकबंदी करती थी। मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करते-करते वे एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। कईं पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताओं का प्रकाशन होने लगा था। बाल विवाह ने उनकी साहित्य साधना का मार्ग अवरूद्ध करने की कोशिश जरूर की, लेकिन उनके इरादों के आगे यह बाधा भी दूर हो गई।

महादेवी वर्मा का लेखन के अलावा संपादन और अध्यापन कार्यक्षेत्र रहा। उन्होंने इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। यह कार्य अपने समय में महिला-शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम था। 1932 में उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका ‘चाँदझ् का कार्यभार संभाला। 1930 में नीहार, 1932 में रश्मि, 1934 में नीरजा, तथा 1936 में सांध्यगीत नाम के चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए। 1939 में इन चारों काव्य संग्रहों को उनकी कलाकृतियों के साथ वृहदाकार में यामा शीर्षक से प्रकाशित किया गया। गद्य में उनकी मेरा परिवार, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी, शृंखला की कडियों और अतीत के चलचित्र प्रमुख कृतियां हैं।

महादेवी जी ने इलाहाबाद में साहित्यकार संसद और रंगवाणी नाट्य संस्था की स्थापना की। उन्होंने भारत में महिला कवि सम्मेलनों की नींव रखी। पहला अखिल भारतीय महिला कवि सम्मेलन 15अप्रैल, 1933 को सुभद्रा कुमारी चौहान की अध्यक्षता में प्रयाग महिला विद्यापीठ में संपन्न हुआ। महादेवी बौद्ध धर्म से बहुत प्रभावित थीं। विशेष रूप से महिलाओं की शिक्षा और उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए उन्होंने बहुत काम किया। आजकल इस बंगले को महादेवी साहित्य संग्रहालय के नाम से जाना जाता है।

शृंखला की कडियों में स्त्रियों की मुक्ति और विकास के लिए साहस व दृढ़ता से आवाज उठाई और सामाजिक रूढियों की कड़ी आलोचना प्रस्तुत की। महादेवी वर्मा को ‘यामा’ काव्य संकलन के लिये भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद 1952 में वे उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्या मनोनीत की गयीं। 1956 में भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवा के लिये पद्म भूषण की उपाधि दी। वे भारत की सबसे यशस्वी महिलाओं में से एक हैं।

उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद नगर में बिताया। 11 सितंबर 1987 को इलाहाबाद में उनका निधन हो गया। 1988 में उन्हें मरणोपरांत भारत सरकार की पद्म विभूषण उपाधि से सम्मानित किया गया। साहित्य में उनका योगदान हमेशा याद किया जाता रहेगा।

-अरुण कुमार कैहरबा

 

 

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