प्रतिक्रिया करना बुरी बात नहीं

Bad Thing, React, Writer

प्रतिक्रिया करना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन इसके पहले हमें स्वयं और दूसरे पक्षों के कद का ध्यान रखना चाहिए तभी प्रतिक्रिया को गरिमामय तथा शालीन कहा जा सकता है और ऐसी प्रतिक्रिया अपना अच्छा तथा दीर्घकालीन प्रभाव छोड़ पाती है। ऐसा नहीं होने पर जो भी प्रतिक्रिया या अभिव्यक्ति होती है वह निरर्थक और बेदम होकर रह जाती है।

पर आजकल स्वेच्छाचारिता और स्वच्छन्दवादिता के माहौल में न कोई क्रिया का ध्यान रख रहा है, न प्रतिक्रिया का। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अपने सारे मायने खो बैठी है और इसी का खामियाजा अपना समाज भुगत रहा है। हर कहीं होने वाली प्रतिक्रियाएं अपना आपा खो रही हैं और लग रहा है जैसे इस मामले में पूरा देश सब्जीमण्डी बन गया है जहां शोर-गुल आम समस्या है। आजकल अभिव्यक्ति के अधिकार को हर आदमी हथियार के रूप में इस्तेमाल करने लगा है।

अभिव्यक्ति करना और प्रतिक्रिया व्यक्त करना आदमी के स्वभाव में तभी से रहा है जबसे उसे वाणी प्राप्त हुई। लेकिन आजकल अभिव्यक्ति और स्वेच्छाचारितापूर्ण बकवास ने सारी सीमाएं तोड़ दी हैं। क्रिया का असर होने पर प्रतिक्रिया होनी चाहिए, यह तो ठीक है लेकिन इन दिनों एकतरफा प्रतिक्रियाओं का बवण्डर चल रहा है। असमय धरती पर जन्म ले चुके ऐसे नाबालिग और निगुरे लोगों की संख्या भी कोई कम नहीं है जो सिर्फ प्रतिक्रियावादी अभिव्यक्ति के लिए ही पैदा हो गए हैं।

इन लोगों का किसी से कोई लेना-देना हो या नहीं, पर उसके बारे मेंं अंट-शंट प्रतिक्रियाएं व्यक्त करने में तनिक भी देर नहीं लगाते। इनमें दोनों ही प्रकार के लोगों की भीड़ शामिल है। पढ़े-लिखे भी हैं और अनपढ़ भी। लेकिन दोनों ही तरह के लोगों में एक समानता जरूर है और वह है घोर संस्कारहीनता। इस संस्कारहीनता और व्यसनों की वजह से इन दोनों ही किस्मों के लोग विवेक शून्य होते जा रहे हैं। हम लोग संस्कारों और मयार्दाओं की केवल बातें ही करते हैं, इनके परिपालन में हमारी कोई रुचि नहीं हैं। संस्कारहीनता के मौजूदा दौर में हम उन सभी मानकों को भूल चुके हैं जिनके आधार पर हम आदमी को तौला करते थे और उसके वजन के अनुरूप ही आदर-सम्मान और महत्व दिया करते थे।

आजकल हम आदमी के संस्कार, विद्वत्ता और उदात्त सकारात्मक भावों को नहीं देखते हैं बल्कि अपने स्वार्थ की पूर्ति को ही सर्वोच्च पैमाना मानकर चल रहे हैं और उसी का नतीजा है कि समाज व परिवेश में नीर-क्षीर मूल्यांकन दृष्टि खोती जा रही है और उसका स्थान पा लिया है पारस्परिक स्वार्थ पूर्ति ने। इस वजह से सब जगह गुड़-गोबर होता जा रहा है। खच्चर अपने आपको हाथी समझने लगे हैं और गधे खुद को अश्वराज के रूप में स्थापित किए जा रहे हैं। कुत्तों के अहंकार और घोषणाओं को तो कोई पार ही नहीं है।

व्यक्ति में जिस अनुपात में अहंकार जगह बनाने लगता है उसी अनुपात में ज्ञान और विवेक पलायन करने लगते हैं। विवेक और अहंकार एक साथ कभी नहीं रह सकते। फिर अहंकार और विवेक शून्यता ऐसे घातक रसायन हैं जो जिस व्यक्ति के मस्तिष्क में बनने शुरू हो जाते हैं उसकी सारी इन्सानियत धीरे-धीरे खोखली कर के ही दम लेते हैं।

अपने क्षेत्र में भी ऐसे लोगों की कहां कमी है जो ऐसे संस्कारहीन और बकवासी हैं और क्षेत्र भर को प्रदूषित करने में पीछे नहीं हैं। जहां मौका मिलता है ऐसे लोग समूहों में जमा होकर अनर्गल टिप्पणियां करनी शुरू कर देते हैं। इन लोगों का वास्तविक चेहरा उसी समय ही सामने आ पाता है। ये ही वे मौके होते हैं जब उनके उन्मादी और विक्षिप्त व्यक्तित्व का परिचय सार्वजनीन होने लगता है।

दुर्भाग्य तो यह है कि ये उन्मादी और व्यभिचारी लोग यह भी ध्यान नहीं रखते कि वे किस पर टिप्पणी कर रहे हैं और इन्हें क्या अधिकार है। लेकिन सदा-बकवासी ये लोग ज्यों-ज्यों उम्रदराज होते जाते हैं वैसे-वैसे इनकी उन्मादी टिप्पणियां थमने की बजाय परिपक्वता पाने लगती हैं।

दुर्भाग्य यह है कि पैशाचिक वृत्तियों वाले दुराचारी लोग ऋषि परम्पराओं में जीने वाले लोगों पर टिप्पणियां कर रहे हैं, अनपढ़ लोग उन लोगों पर टिप्पणियां कर रहे हैं जिन्होंने बड़ी मेहनत से ज्ञान पाया और मुकाम हासिल किया। शराबी, मांसाहारी, लम्पट, हरामखोर, दुराचारी, व्यसनी और धूत्त लोग उनके बारे में बकवास करने लगे हैं जो सच्चरित्र और ईमानदार हैं।

छोटे कदों और पदों वाले लोग बडे़ कदों और पदों वालों पर औचित्यहीन बकवासी टिप्पणियां कर रहे हैं। आवारा और उठाईगिरे उन लोगों पर टिप्पणी करने में भिड़े हुए हैं जो समाज में प्रतिष्ठित और सर्वस्पर्शी हैं। फोकट का माल उड़ाने वाले, कमीशनखोर और भ्रष्ट, हराम का चाय-नाश्ता, भोजन और खाने-पीने में लगे हुए, झूठन पर थूंथन लगाकर चाटने वाले सूअरों की जमात वाले लोग उन लोगों के खिलाफ जहर उगलने लगे हैं जो ईमानदारी और मेहनत की खा रहे हैं।

-डॉ. दीपक आचार्य

 

 

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