ब्रिटेन में राष्ट्रीय चुनाव में भारत के निहितार्थ

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विश्व के सबसे पुराने संसदीय लोकतंत्र ब्रिटेन में 8 जून को लोकतंत्र का महापर्व अर्थात् संसदीय चुनाव हो रहे हैं। जैसे-जैसे 8 जून करीब आया एकतरफा चुनाव कांटे की टक्कर की ओर अग्रसर हो गए। ब्रेक्जिट का फैसला लिए जाने के बाद गुरुवार के चुनावों का यूरोपीय यूनियन के ब्रिटेन के साथ संबंध निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका होगी। ब्रिटेन में यह चुनाव ऐसे समय संपन्न हो रहा है, जब पिछले 3 माह में ब्रिटेन में 3 बड़े आतंकी हमले हो चुके हैं। आतंकवाद से दहलते ब्रिटेन के इस चुनाव पर संपूर्ण विश्व की नजरें टिकी हुई हैं।

लगातार आतंकी हमलों के कारण लग रहा था कि ब्रिटिश चुनाव 8 जून को नहीं हो पाएँगे, लेकिन ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने इसका एलान करते हुए कहा कि हिंसा से लोकतंत्रात्मक प्रक्रिया बाधित नहीं होनी चाहिए। इन आतंकवादी हमलों से ब्रिटिश प्रधानमंत्री टेरीजा मे के लोकप्रियता में पहले की तुलना में गिरावट आई है।

यही कारण है कि प्रारंभ में चुनाव थेरेसा मे के पक्ष में पूर्णत: एकपक्षीय लग रहा था, वहीं अब विपक्षी लेबर पार्टी से बढ़त घटती जा रही है। ब्रिटेन की सरकारों ने 2005 में हुए आतंकवादी हमलों के बाद से ही सुरक्षा व्यवस्था पर काफी खर्च किया है। एक बार फिर इन 3 माह के 3 आतंकी हमलों ने इस चुनाव के लिए सुरक्षा को अहम चुनावी मुद्दा बना दिया।

ब्रिटेन आतंकवाद विरोधी वैश्विक प्रयासों में अहम् भूमिका निभाता है और इराक व सीरिया में आईएस के खिलाफ हमले के लिए तैनात अमरिकी गठबंधन का एक प्रमुख सदस्य है, लेकिन ब्रिटेन के विपक्षी दल के नेता जेरमी कॉर्बिन ने कहा है कि अगर उनकी लेबर पार्टी आज के चुनाव में जीतती है, तो वह ब्रिटेन की विदेश नीति बदल देंगे और आतंक के खिलाफ युद्ध को बंद कर देंगे। लेबर पार्टी मानती है कि 2001 के बाद ब्रिटिश सैन्य हस्तक्षेप न केवल हिंसक हमलों के खतरों को रोकने में विफल रहा है, बल्कि इसके चलते स्थिति और बदतर हुई।

ब्रिटिश चुनाव में यूरोपीय कस्टम यूनियन में ब्रिटेन की सदस्यता,आतंकवाद,सुरक्षा जैसे प्रमुख मुद्दों के अतिरिक्त सरकार द्वारा संचालित राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा,आव्रजन और अर्थव्यवस्था प्रमुख है।वानाक्राई रैनसमवेयर साइबर हमले के बाद ब्रिटिश राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा तरह बुरी तरह प्रभावित हुई थी,इसलिए वहाँ के इन चुनावों में पहली बार साइबर सुरक्षा जैसे मुद्दों ने भी स्थान बनाया है।

वहीं ब्रिटेन के दक्षिणपंथी यूके इंडिपेंडेंस पार्टी ने अपने घोषणापत्र में बुर्के पर प्रतिबंध लगाने की बात कही है और इसका दिलचस्प कारण बुर्के के कारण महिलाओं में विटामिन डी की कमी को बताया है।यद्यपि यह पार्टी ब्रिटेन में कोई विशेष जनाधार नहीं रखती है। ब्रिटेन के चुनाव न केवल ब्रिटेन-ईयू संबंधों के लिए महत्वपूर्ण हैं, अपितु भारत-ब्रिटेन संबंधों पर भी इसके व्यापक प्रभाव होंगे।

भारत ब्रिटेन का अहम् ट्रेड पार्टनर है, यही कारण है कि “ग्लोबल ब्रिटेन” का नारा देकर प्रधानमंत्री थेरेसा ने पहला विदेश दौरा भारत का ही किया था। इन सबके बावजूद भारत-ब्रिटेन का व्यापार काफी कम है, जिसे बढ़ाने की आवश्यकता है। इसके लिए भारत को सूक्ष्मतापूर्वक ब्रेक्जिट की प्रक्रिया पर नजर रखनी होगी। अगर ब्रिटेन यूरोपीय यूनियन के कस्टम यूनियन में बना रहता है, तो भारत को ब्रिटेन की बजाए यूरोपीय यूनियन से डील करनी पड़ेगी।

भारत-ब्रिटेन रिश्ते पूरी तरह चुनावी नतीजों पर निर्भर करता है, क्योंकि ब्रिटेन की दोनों पार्टियों की राय पूर्णत: अलग-अलग है। लेबर या लिबरल डेमोक्रेटस की जीत से ब्रिटेन यूरोपीय कस्टम यूनियन में बना रह सकता है। ऐसे में भारत-ब्रिटेन वार्ताओं की आवश्यकता नहीं होगी, लेकिन थेरेसा मे के नेतृत्व में कंजरवेटिव यूरोपीय कस्टम यूनियन से भी अलग होने के लिए प्रतिबद्ध है।

इस स्थिति में भारत-ब्रिटेन वार्ता अपरिहार्य होगा, जो कदापि आसान नहीं होगी। ब्रिटेन कारों पर आयात कर कम करने के साथ ही वित्तीय सेवाओं और कानूनी फर्मों के भारत में प्रवेश की मांग कर सकता है। पहले भी ये मांगे उठ चुकी हैं लेकिन भारत को अपने हितों का विशेष ध्यान देना होगा।

ब्रिटेन अगर यूरोपीय यूनियन से बाहर होता है तो ब्रिटेन का ईयू से व्यापार कम हो जाएगा। इसके क्षतिपूर्ति हेतु ब्रिटेन भारत से व्यापार हेतु जल्दबाजी में दिख सकता है। भारत को इस समय का लाभ अवश्य उठाना चाहिए तथा अप्रवासन संबंधी मुद्दोंं को उठाना चाहिए। ज्ञात हो पिछले बार जब भारत ईयू वार्ता टूटी थी तो उस समय ब्रिटेन के गृहमंत्री तथा आज के प्रधानमंत्री थेरेसा मे यह नहीं चाहती थीं कि भारत को अप्रवासन के मामले में कोई रियायत दी जाए,वहीं भारत ने साफ कर दिया था कि यह रवैया भारत के हित में नहीं है।

कंजरवेटिव पार्टी अभी भी ईयू से सिर्फ एक लाख अप्रवासियों को ब्रिटेन आने देना चाहती है,जबकि वर्तमान में यह संख्या दो लाख है। इस फैसले से भारत का प्रभावित होना तय है,जबकि लेबर और लिबरल डेमोक्रेटस इस पर ढील देने को तैयार हैं। भारत और यूरोपीय यूनियन के बीच सबसे बड़ा गतिरोध कृषि क्षेत्र के सब्सिडी को लेकर था,परंतु भारत-ब्रिटेन के बीच ऐसी कोई बाधा कृषि सब्सिडी को लेकर नहीं है।

जबकि अप्रवासन को लेकर स्थिति उल्टी है। यह भारत-ब्रिटेन के बीच का मुख्य गतिरोध है,परंतु ईयू के साथ यह भारत के लिए उतना महत्वपूर्ण वार्ता अवरोधक नहीं है। इधर भारत में ईवीएम का मुद्दा छाया रहा। लेकिन ब्रिटेन में गुरुवार को हो रहे चुनाव मतपत्र से ही हो रहे हैं। पिछले 3 वर्षों से ब्रिटेन में ईवीएम के प्रयोग पर चर्चा चल रही है।

लेकिन वहां की खुफिया एजेंसियों और चुनाव आयोग का मानना है कि ईवीएम फुलप्रूफ नहीं है और उसकी हैंकिंग की जा सकती है। साथ ही यहाँ मतदाताओं की संख्या भी भारत से काफी कम होती है। वहाँ चुनाव खर्च को लेकर प्रतिबंध भी कठोर हैं। वहाँ हर उम्मीदवार 8,700 पाउंड्स से ज्यादा खर्च नहीं कर सकता।

भारत में 48% आबादी महिलाओं की है,जबकि लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व केवल 12% है। वहीं ब्रिटेन में महिलाओं की आबादी 51% है, जबकि संसद में उनका प्रतिनिधित्व 29% है। लेकिन भारत में आजादी के बाद बिना किसी भेदभाव के महिलाओं समेत सभी को मताधिकार एक साथ मिला, वहीं ब्रिटेन में महिलाओं को काफी संघर्ष के बाद 1918 में मताधिकार मिल पाया।

16 लाख भारतीय ब्रिटिश भी ब्रिटेन के चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका रखते हैं। कई छोटी सीटों पर इनके वोट ही तय कर पाएंगे कि सांसद कौन है। इसलिए ब्रिटेन के सभी वरिष्ठ नेता कभी मंदिर तो कभी गुरुद्वारा जाकर वोटरों को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। ब्रिटानी प्रधानमंत्री थेरेसा तो भारतीय प्रधानमंत्री मोदी के साथ वीडियो दिखाकर भारतीय मूल के मतदाताओं को लुभाने का प्रयास कर रही हैं।

ब्रिटिश लोकतंत्र का महापर्व के चुनाव परिणाम के बाद ही लोगों की जिज्ञासा खत्म हो सकेगी। इस चुनाव से न केवल ईयू ब्रिटेन अपितु संपूर्ण विश्व प्रभावित होगा। ब्रिटेन सुरक्षा परिषद में वीटो प्राप्त स्थायी सदस्य के अतिरिक्त महत्वपूर्ण जी-7 तथा जी-20 का सदस्य भी है। इसके अतिरिक्त जीडीपी के मामले में दुनिया की 5 वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भी है। अत: आज के वैश्वीकरण के युग में ब्रिटिश चुनाव परिणाम भारत समेत पुरी दुनिया को अवश्य प्रभावित करेगा।

-राहुल लाल

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