स्वच्छ पर्यावरण से दूर होता मानव समाज

Fog

चिकित्सा जगत की चर्चित पत्रिका ‘द लांसेट’ ने हाल ही में प्रदूषण से संबंधित हैरान करने वाले दो तरह के आंकड़े जारी किये हैं। पत्रिका की पहली रिपोर्ट के मुताबिक, भारत साल 2015 में प्रदूषण से हुई मौतों के मामले में 188 देशों की सूची में पांचवें स्थान पर रहा। इस तरह, 2015 में दुनियाभर में प्रदूषण की वजह से हुई नब्बे लाख मौतों में से 25 लाख लोगों की मौत केवल भारत में ही हुई।

प्रदूषण की वजह से हुई मौत के ये आंकड़े साल भर में युद्ध, धूम्रपान, भुखमरी, प्राकृतिक आपदा, एड्स, टीबी और मलेरिया से हुई कुल मौतों से कहीं अधिक हैं। वहीं, पत्रिका की दूसरी रिपोर्ट बताती है कि 2015 में 1.24 लाख भारतीयों की असामयिक मौत की वजह, बाह्य नहीं अपितु घरों के भीतर होने वाला प्रदूषण रहा।

‘द लांसेट काउंटडाउन:ट्रैकिंग प्रोग्रेस आॅन हेल्थ एंड क्लाइमेट चेंज’ शीर्षक से जारी रिपोर्ट ने निम्न आय वर्गीय भारतीय परिवारों की चिंताएं बढ़ा दी हैं, जिनकी निर्भरता आज भी जलावन के लिए ईंधन के परंपरागत साधनों, मसलन लकड़ी और कोयले पर है। जीवाश्म ईंधन, सिगरेट का धुआं और धूल लोगों को धीमी मौत मार रहा है या उन्हें बीमार कर रहा है।

वायु में विद्यमान कार्बन मोनोक्साइड, कार्बन डाई-आॅक्साइड, मिथेन, क्लोरो-फ्लोरो कार्बन, सल्फर व नाइट्स आॅक्साइट, ओजोन और विशेषकर पीएम 2.5 (पार्टिकुलेट मैटर) जैसे प्रदूषकों की बढ़ती मात्रा ने वातावरण को जहरीला बना दिया है। इस वजह से लोगों में कैंसर, अस्थमा तथा सांस संबंधी अन्य शिकायतें भी बढ़ती जा रही हैं।

बढ़ते प्रदूषण की वजह से लाखों लोगों के जान गंवाने के बाद हम पर्यावरण सजगता के प्रति गंभीर नहीं हैं। आलम यह है कि, राष्ट्रीय राजधानी से लेकर देश के छोटे-बड़े अन्य शहरों की आबोहवा दूषित होती जा रही है। देश के अधिकांश शहर ‘गैस चैंबर’ बनकर मौत लोगों को खुलेआम मौत बांट रहे हैं। देश के अन्य छोटे-बड़े शहरों में शुद्ध जल और स्वच्छ वायु की प्राप्ति किसी चुनौती से कम नहीं है।

शहरीकरण की वजह से जन्मे शहरों में आधुनिक जीवन का चकाचौंध तो है, लेकिन इंसानी जीवनशैली नरक के समान होती जा रही है। पर्यावरण में चमत्कारिक रुप से विद्यमान वायु का प्रदूषित होकर मानव जीवन के लिए खतरनाक साबित होना, पर्यावरणीय सजगता के प्रति हमारी बेफिक्री को बयां करती हैं।

विडंबना यह है कि पर्यावरण से निरंतर छेड़छाड़ तथा विकास की अनियंत्रित भूख ने आज इंसान को शुद्ध व स्वच्छ पर्यावरण से भी दूर कर दिया है। इस वजह से लोगों की जीवन-प्रत्याशा लगातार घटती ही जा रही है।

वर्तमान समय में पर्यावरण विभिन्न समस्याओं से जूझ रही है। हरित-गृह प्रभाव, ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन परत क्षय व सभी प्रकार के प्रदूषणों (जल, वायु, भूमि और ध्वनि) ने पर्यावरण को मैला कर दिया है।

यह सब नतीजा है, प्राकृतिक नियमों को धता बताते हुए हठधर्मी औद्योगिक विकास का। विगत कुछ वर्षों में सततपोषणीय विकास से इतर, एकाधिकारवादी औद्योगिक समाज की स्थापना की तरफ बढ़ते मानव समुदाय के कदमों ने पर्यावरणीय तत्वों को गहरा आघात पहुंचाया है। प्राकृतिक नियमों को अनदेखा कर, लूट की बुनियाद पर औद्योगिक विकास, विनाश के जनन को उत्तरदायी होता है। दुर्भाग्य है कि सबकुछ जानने-समझने के बाद ही हम नादान बने हैं और अपनी गतिविधियों से पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे हैं।

इन दिनों, दिल्ली में प्रदूषण के छाये घने आवरण की खबरों ने सार्वजनिक चिंताएं बढ़ा दी हैं। हालांकि, दिल्ली की आबोहवा में जहर घुलने के पीछे कई कारण उत्तरदायी रहे हैं। अलबत्ता, इसकी शुरूआत तब से ही हो गई थी, जब दिल्ली से सटे कुछ राज्यों में प्रशासनिक आदेशों के बावजूद पराली जलाने की शुरूआत हुई थी।

ऐसे में, सवाल उठता है कि धरती पर जीवन के अनुकूल परिस्थितियों के लिए आखिर हमने छोड़ा क्या? हमारे स्वार्थी कर्मों का ही नतीजा है कि हवा, जल, भूमि तथा भोजन, सभी प्रदूषित हो रहे हैं। पौधे हम लगाना नहीं चाहते और जो लगे हैं, उसे कथित विकास के नाम पर काटे जा रहे हैं। ऐसे में हमें धरती पर जीने का कोई नैतिक हक ही नहीं बनता।

हर साल, अक्टूबर और नवंबर माह में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों द्वारा, विशेषकर धान की फसल की कटाई के बाद उसके अवशेषों (पराली) को जलाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। नयी फसल की जल्द बुआई करने के चक्कर में किसान पराली को अपने खेतों में ही जला देते हैं। यह क्रम साल दर साल यों ही चलता रहता है।

हमारे किसान इस बात से अंजान रहते हैं कि इस आग से, एक ओर जहां पर्यावरण में जहर घुल रहा होता है, वहीं खेतों में मौजूद भूमिगत कृषि-मित्र कीट तथा सूक्ष्म जीवों के मरने से मृदा की उर्वरता घटती है, जिससे अनाजोत्पादन भी प्रभावित होता है। अमरीकी कृषि वैज्ञानिकों की मानें तो भारत में अन्नोत्पादन में कमी का एक बड़ा कारण वायु प्रदूषण है।

वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि यदि भारत वायु प्रदूषण का शिकार न हो, तो अन्न उत्पादन में वर्तमान से 50 प्रतिशत अधिक तक की वृद्धि हो सकती है। पराली जलाने से वायुमंडल में कार्बन डाईआॅक्साइड, कार्बन मोनोआॅक्साइड और मिथेन आदि विषैली गैसों की मात्रा बहुत अधिक बढ़ जाती हैं। पराली का बहुतायत में जलाया जाना, दिल्ली व आसपास के क्षेत्रों में प्रदूषण बढ़ने की प्रमुख वजह बन गई है।

बहरहाल, एक तरह से देखा जाए, तो देश में पर्यावरण प्रदूषण की चिंता सबको है। पर, ना तो कोई इसके लिए पौधे लगाना चाहता है, ना ही अपनी धुआं उत्सर्जन करने वाली गाड़ी की जगह सार्वजनिक बसों का प्रयोग करना और ना ही उसके स्थान पर साइकिल की सवारी को महत्व देना चाहता है।

हमारे यहां प्राय: छठी कक्षा से ही भूगोल की पाठ्यपुस्तकों में पर्यावरण संरक्षण को एक महत्वपूर्ण विषय के रुप में शामिल किया गया है। बावजूद इसके, पर्यावरणीय सजगता की बातें केवल किताबों, अखबारों और सोशल मीडिया तक ही सिमट कर रह गई हैं। दरअसल, लोगों का एक-दूसरे को उपदेश देने और स्वयं उसके पालन न करने की पारंपरिक आदतों ने आज पर्यावरण को उपेक्षा के गहरे गर्त में धकेल दिया है।

पर्यावरण प्रदूषण पर रोकथाम के लिए सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) जैसी संस्थाएं जितनी गंभीर है, उतनी सरकारें नहीं। शुद्ध पेयजल वायु व स्वच्छ पर्यावरण को चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। पर्यावरण संरक्षण के लिए देश में अनेक स्तरों पर मुहिम चलाए जाने की जरुरत है, अन्यथा ‘औद्योगिक आतंकवाद’ का यह स्वरुप धीरे-धीरे पूरी मानव जाति को ही लील लेगा।

-सुधीर कुमार

 

 

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