मौत के कुओं में कब तक गिरते रहेंगे मासूम

How long will death continue in the wells of death

बिहार के मुगेंर जिले में खेलते समय 110 फीट गहरे बोरवेल में गिरी तीन साल की मासूम सना को 31 घंटे चले रेस्क्यू आपरेशन के बाद सुरक्षित निकाल लिया गया। अपनी मां के साथ सना ननिहाल आयी थी और मंगलवार को खेलते वक्त बोरवेल में जा गिरी थी। हालांकि यह सब एसडीआरएफ के साथ एनडीआरएफ के जाबांज जवानों की वजह से हुआ। 40 फीट गहरे मौत के कुएं में फंसी सना को जिंदा निकालने की चुनौती भी थी। उसकी जिंदगी बचाने के लिए आक्सीजन पहुंचायी गयी। चाकलेट के साथ खाने-पीने की वस्तुएं भी दी गयी। बोरवेल से निकालने के बाद तुरंत अस्पताल पहुंचाया गया। यह सब कुछ संभव नहीं था, लेकिन आपदा राहत एंव बचाव दल के जाबांजों ने यह सब कर दिखाया। हमें उनकी बहादुरी को सलाम करना चाहिए। विषम परिस्थितियों में भी जो मौत से जुझ कर मासूम जिंदगी को जिंदा बाहर निकालने में कामयाब हुए। सना के मां-बाप के साथ ननिहाल के लोगों को कितनी खुशी मिली होगी। यह सवाल उन्हीं से पूछा जा सकता है।

मौत के कुएं यानी बोरवेल में मासूमों के गिरने की यह कोई पहली घटना नहीं थी और न ही अंतिम होगी। अब तक इस तरह के हादसों में पता नही ंहम कितने मासूमों की जान गंवा बैठे हैं जिसका कोई अधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। हरियाणा के कुरुक्षेत्र में 2006 में हुई वह घटना आज भी लोगों के दिलों, दिमाग में जिंदा है जब बोरवेल में गिरे मासूम प्रिंस को सेना ने अथक प्रयास से 40 घंटे बाद उस बोरवेल से बाहर निकाला गया था। उस घटना के बाद मासूमों को बोरवेल से निकालने के लिए एसडीआरएफ के साथ एनडीआरएफ और सेना का उपयोग किया जाने लगा। हालांकि 12 साल बाद भी उस हादसे से हमने कोई सीख नहीं लिया। जिसकी वजह है प्रिंस, माहीं और सना की घटनाएं अंतिम नई हुई।

हमने कभी दुर्घटनाओं से सबक नहीं लिया। जिसकी वजह से आए दिन इस तरह की घटनाएं हमारे आसपास होती रहती हैं। नतीजा सेना को भारी कीमत चुकानी पड़ती है। रेस्क्ूय आपरेशन के जरिए अनावश्यक श्रम, पैसा और समय बर्बाद होता है। एक जान बचाने के लिए कई जिंदगियां दांव पर रहती हैं। हादसों के बाद हम जिंदगी को बचाने के लिए दुआएं करते हैं। टीवी चैनलों पर लाइव डिवेट शुरू हो जाती है। हम न्यायाधीश बन कर फैसला सुना देते हैं। सरकारों और व्यस्था के नुमाइंदों पर जिम्मेदारी की गठरी रख देते हैं। जबकि हम यह सब कर जिम्मेदारियों से नहीं बच सकते। जिसका नतीजा होता है कुछ दिन बाद हमारे आसपास को कोई न कोई मासूम फिर मौत के कुएं का निवाला बन जाता है। फालतू की बहस के बजाय अगर हम सामाजिक तौर पर थोड़े जागरुक हो जाएं तो इस तरह की घटनाओं पर हम विराम लगा सकते हैं। लेकिन हम कानून और व्यवस्था को कोंसने के सिवाय जागरुक नहीं बनना चाहते हैं।

सर्वोच्च अदालत की तरफ से बोरवेल को लेकर सुरक्षा के जो निर्देश जारी किए गए हैं वह अपने आप में पर्याप्त हैं। समय रहते अगर संजीदगी से अनुपालन किया जाय तो इस तरह की घटनाएं नहीं होंगी। अदालत ने अपनी तरफ से जारी दिशा निर्देश में साफ तौर कहा है कि अगर कोई संस्था या व्यक्ति बोरवेल का निर्माण करता है तो उसकी सूचना 15 दिन पूर्व जिला प्रशासन से या संबंधित विभाग से अनुमति लेनी होगी। खुदाई के पूर्व रजिस्टेशन करना होगा। सभी जिलाधिकारियों को गाइड लाइन भी जारी की गयी है। कोई भी बोरवेल खुला नहीं रहना चाहिए, उसे हरहाल में ढ़का जाना चाहिए। शहरी इलाकों में भूजल विभाग और ग्रामीण इलाकों में सरपंच अथवा उससे संबंधित संस्थाएं निगरानी का काम करेंगी। जहां बोरवेल का निर्माण कराया जा रहा है उस स्थल पर संबंधित कंपनी, संस्थान या व्यक्ति की तरफ से चेतावनी बार्ड लगाना होना चाहिए। जिस पर खुदाई करने वाली संस्था या उससे संबंधित लोगों का नाम, पता और दूसरी जानकारियां अंकित होंगी। बोरवेल खुदाई का कार्य जो कंपनी करती है उसका पंजीयन संबंधित विभाग में होना चाहिए। अदालत ने यह भी कहा था कि बोरवेल खुदाई के बाद आसपास कोई गड्ढा नहीं होना चाहिए। गड्ढा है तो उसे कंकरीट से भर देना चाहिए। दोषी लोगों के लिए कठोर दंड का भी प्राविधान किया गया है। अदालत की इस गाइड लाइन का अनुपालन किया गया होता तो सैकड़ों मासूमों की जिंदगी मौत के कुएं में जाने से बच जाती। लेकिन दुर्भाग्य से यह विषय हमारी राजनीति और संसद की कभी आवाज नहीं बनी। राजनीति ने उन्हीं मसलों पर शोर मचाय जिसके जरिए उसका वोटबैंक मजबूत होता है।

सामाजिक जागरुकता के जरिए ही हम इस तरह के हादसों से बच सकते हैं। घटनाओं के लिए हमें सरकारों को कोंसने के बजाय खुद सोचना होगा। हमारे आसपास अगर इस तरह की कोई गतिविधि, कार्य या फिर किसी तरह का निर्माण हो रहा है ,जिससे मानवीय जीवन को खतरा है। उस पर हमें तत्काल कदम उठाने चाहिए। जिम्मेदार संस्थान, व्यक्ति, विभाग तक इसकी शिकायत करनी चाहिए। जिससे समय रहते उसका समाधान निकाला जाय और हादसों से बचा जाय। यह हमारा नैतिक सामाजिक दायित्व है। लेकिन बदलते दौर में समाज के अंदर खुद का स्वार्थ अधिक हावी हो रहा है। सामाजिक जिम्मेदारी का अभाव दिख रहा है। जिसकी वजह से इस तरह के खतरे पैदा हो रहे हैं। हम संविधान में संशोधन कर, हर दिन एक नया बिल लाकर कानून के जरिए समस्याओं समाधन नहीं निकाल सकते, खास तौर पर बोरवेल जैसी घटनाओं का। इसके लिए समाज के हर व्यक्ति को अपना दायित्व निभाना होगा। लोगों में थोड़ी जागरुकता लानी होगी। अगर हम ऐसा करते हैं तो उन तमाम घटनाओं से अपने को सुरक्षित रख सकते हैं। सरकारों को कटघरे खड़ा कर और कानून को कोंस हम सिर्फ समस्याओं को बढ़ा सकते हैं उसका समाधान नहीं निकाल सकते हैं। इसलिए हमें आगे आने की जरुरत है। हमारे आसपास अगर इस तरह की कोई गतिविधि हो रही है तो इसकी जानकारी अवश्य रखनी होगी। जिसकी वजह से हम ऐसे हादसों से खुद और मासूमों को सुरक्षित रख सकें। सराकरों को भी सुप्रीमकोर्ट की तरफ से जारी दिशा निदेर्शों का अनुपाल सुनिश्चित करने के लिए कठोरदंड विधान की व्यवस्था करनी चाहिए।

प्रभुनाथ शुक्ल

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