गोरखालैंड मांग की धधकती आग

Gorkhaland Andolan, Tourist, Famous, Attraction, Darjeeling

लो दुनिया भर में प्राकृतिक सुंदरता के लिए विख्यात और पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र दार्जिलिंग आज अराजकता और हिंसा की चपेट में है। आंदोलन से जनजीवन अस्त-व्यस्त है और शहर से रौनक गायब है।

आगजनी और हिंसा के कारण यहां आए पर्यटक खौफ और दहशत में हैं। इस बदतर हालात के लिए जितना दोषी पश्चिम बंगाल की सरकार है ,उतना ही गोरखालैंड राज्य की मांग कर रहे गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) दल भी। बहरहाल पश्चिम बंगाल की ममता सरकार राज्य के पहाड़ी इलाकों दार्जिलिंग के स्कूलों में बांग्ला भाषा थोपने की जल्दबाजी नहीं दिखायी होती, तो गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को भी विरोध की चिंगारी को दावानल में बदलने का मौका हाथ नहीं लगता।

बेशक राज्य सरकार को अधिकार है कि वह शिक्षा का पाठ्यक्रम सुनिश्चित करे, लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह क्षेत्रीय भावनाओं के साथ खिलवाड़ करे। वह भी तब, जब पहाड़ी इलाकों में भाषा और क्षेत्रीय अस्मिता को लेकर पहले से ही भावनाएं उफान पर हों। ऐसे संवेदनशील मसले पर निर्णय लेने से पहले उसे सहमतिपूर्ण वातावरण निर्मित करना चाहिए था।

अगर बात रायशुमारी की होती, तो दार्जिलिंग अराजकता और आग की लपटों की भेंट नहीं चढ़ता। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के आंदोलनकारियों के प्रति राज्य सरकार की सख्ती का नतीजा है कि 35 साल पुराने गोरखालैंड राज्य की मांग पुन: धधक उठी है।

राज्य सरकार द्वारा गोरखा टेरिटोरियल एडमिनिस्टेÑशन और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के अधीन रहे नगर निगमों में आर्थिक अनियमितताओं के आरोपों की जांच ने भी आंदोलन की आग में घी का काम किया है। इन परिस्थितियों के बीच गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के लिए अपना जनाधार बढ़ाने के लिए एक संवेदनशील मुद्दे की जरुरत थी, जिसे पश्चिम बंगाल की सरकार ने सहजता से उपलब्ध करा दिया। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा इसे हथियार बनाकर गोरखालैंड राज्य की मांग को धार दे रहा है।

जहां तक गोरखालैंड राज्य के मांग का मसला है, तो दार्जिलिंग प्रारंभ में पश्चिम बंगाल का हिस्सा नहीं था। इतिहास में जाएं तो 1865 में जब अंग्रेजों ने चाय का बागान शुरु किया, तो यहां बड़ी संख्या में मजदूर काम करने आए। उस वक्त कोई अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा नहीं थी, लिहाजा ये लोग खुद को गोरखा किंग के अधीन और इस इलाके को अपनी जमीन मानते थे।

लेकिन आजादी के बाद भारत ने नेपाल के साथ शांति व दोस्ती के लिए 1950 का समझौता किया और सीमा विभाजन के बाद यह हिस्सा भारत में आ गया। उसके बाद से ही यहां के लोग अलग राज्य के निर्माण की मांग कर रहे हैं। इसकी प्रमुख वजह यह है कि बंगाली और गोरखा मूल के लोग सांस्कृतिक व ऐतिहासिक तौर पर एक-दूसरे से अलग मानते हैं और यही कारण है कि गोरखालैंड राज्य की मांग को बल मिल रहा है।

तथ्य यह भी कि ब्रिटिशकाल में दार्जिलिंग सिक्किम का हिस्सा हुआ करता था। बाद में उसका विलय बंगाल में कर दिया गया। लेकिन इसके बावजूद भी यहां के लोगों की संस्कृति, खान-पान व पहनावा बंगाल से भिन्न है।

भाषा से इतर अन्य मामलों में भी यहां के लोग स्वयं को बंगालियों से अलग मानते हैं। यह भिन्नता ही यहां के लोगों को अलग गोरखालैंड राज्य के लिए प्रेरित कर रही है। यहां के लोगों का तर्क है कि जब भाषा और क्षेत्रीय अस्मिता के आधार पर देश में राज्यों का बंटवारा हुआ और मराठी बोलने वालों के लिए महाराष्ट्र और गुजराती बोलने वालों के लिए गुजरात राज्य का गठन हुआ, तो उसी आधार पर गोरखालैंड राज्य का गठन क्यों नहीं होना चाहिए?

गोरखालैंड राज्य की मांग की शुरुआत गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट के नेता सुभाष घीसिंग ने की थी। उन्होंने 5 अप्रैल 1980 को गोरखालैंड नाम दिया। इसके बाद पश्चिम बंगाल की राज्य सरकार दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल बनाने पर राजी हुई। बेहतर होगा कि केंद्र, राज्य व गोरखा जनमुक्ति मोर्चा सभी मिलकर इस मसले पर गंभीरता से विचार कर समाधान का रास्ता तलाशें।

-रीता सिंह

Hindi News से जुडे अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।