बच्चों का विकास, हमारा दायित्व

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दुनिया की तमाम प्रकार की रचनात्मक गतिविधियों की ऐतिहासिक, यादगार और आशातीत सफलता के पीछे जितनी बच्चों की भागीदारी है उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। ये बच्चे न होते तो हमारे कोई से आयोजन सफल नहीं हो पाते। साल भर में जाने कितने दिवस, पखवाड़े, सप्ताह और माह आते हैं, कितने सारे राष्ट्रीय पर्व, उत्सव, त्योहार और अभियान आते हैं, किसी न किसी विषय को लेकर साल भर जितने भी कार्यक्रम आ धमकते हैं उन सभी की सफलता बच्चों पर ही निर्भर है।

ये बच्चे न होते तो साल भर हमारे तमाम प्रकार के आयोजन न केवल फीके रह जाते बल्कि इनका कोई अस्तित्व ही नहीं रह पाता।  देश-विदेश का कोई सा आयोजन हो, बच्चों के बगैर करने की कल्पना मात्र करके देख लीजिये, अपने आप सारी खुमारी उतर जाएगी।  हम साल भर बचपन बचाने, बच्चों के कल्याण और बाल विकास के नाम पर बातें करते झाड़ते रहते हैं, उपदेशों की वृष्टि करते हुए खुद को महानतम उपदेशक एवं बच्चों के कल्याण का मसीहा घोषित करवाने को बेताब रहते हैं।

और तो और जिन बच्चों के नाम पर साल भर समर्पित रहना चाहिए उन बच्चों के लिए साल भर में केवल एक दिन बाल दिवस के रूप में मना डालते हैं और फिर बच्चों के प्रति अपने दायित्वों की इतिश्री कर लिया करते हैं।

हम सभी बड़े लोगों को गंभीरता से सोचना होगा कि हम बच्चों के कल्याण के लिए क्या कुछ डींगे हाँक रहे हैं, क्या कुछ कर पा रहे हैं और बच्चों के कल्याण की दिशा में हमारी सच्चाई, ईमानदारी और नीयत का प्रतिशत कितना कुछ है।बचपन बचाने की हम केवल बातें ही करते हैं और बच्चों के नाम पर पुरस्कार-सम्मान खुद ले उड़ते हैं।

बच्चों के लिए हमने न कोई खेल मैदान बाकी रखा है, न उनके लिए मनोरंजन और बाल उद्यान आदि। खेलने-कूदने की उम्र में बच्चे मनोरंजन और मस्ती चाहते हैं, पढ़ाई-लिखाई और श्रम के बोझ से मुक्त रहना चाहते हैं।  पर हम उनके बचपन की निर्मम हत्या करने पर तुले हुए हैं। बस्तों के बोझ के मारे कुली के रूप में देख-देख कर भी हमें बच्चों पर दया नहीं आती। हमें क्या अधिकार है बच्चों की बातें करने का, जबकि हम स्कूलों में बच्चों को शुद्ध पानी तक मुहैया नहीं करवा पाए हैं।

हमें इस बात की भी परवाह नहीं है कि मोटी-मोटी फीस लेने के बावजूद हम बच्चों के लिए स्कूल में पानी का प्रबन्ध तक नहीं कर पाए हैं और इस स्थिति मेंं बच्चों को बस्ते के साथ पानी की बोतल तक भर कर लाने को विवश होना पड़ रहा है। शरीर की आवश्यकता के अनुपात में यह पानी कितना कम पड़ता है और हम बच्चों की सेहत का ख्याल रखने के पाठ पढ़ाते हुए यह पढ़ाते रहते हैं कि खूब पानी पीना चाहिए। सुविधाओं का अभाव भी बच्चों के लिए बड़ी समस्या है।

सुविधाओं के नाम पर बहुत कुछ किया है हमने, सरकार भी खूब कर रही है लेकिन हम क्या कर रहे हैं, यह देखा जाए तो दुर्भाग्यजनक ही है। हम भी जिम्मेदार हैं बच्चों के बैग्स का भार बढ़ाने में। देश की तमाम रचनात्मक गतिविधियों में उन बच्चों के धैर्य, साहस और सहनशीलता की तारीफ की जानी चाहिए जो गर्मी, सर्दी और बरसात और तमाम विषम परिस्थितियों में भी उत्साह के साथ भागीदारी निभाते हैं।

बच्चों के अधिकारों के संरक्षण व उनके विकास के लिए जितना कुछ पिछले बरसों में होता रहा है, उतना यदि ईमानदारी से होता तो आज बाल दिवस जैसे आयोजनों की कोई जरूरत नहीं पड़ती। बच्चों से हम राष्ट्रीय दिवसों पर कई-कई दिन अभ्यास करवाते हैं, ये ही बच्चे घण्टों अभ्यास करते हुए हमारे आयोजनों में चार चाँद लगाते हैं।

हमें इस बात का भी संकल्प लेना होगा कि इन बच्चों को रोजाना दूध, फल और बिस्किट मुहैया कराएं ताकि सेहत पर बुरा असर न हो और बच्चों को भी खुशी हो। हम बड़े लोग तो इनके बाद लजीज नाश्तों और पेयों पर सादर सहर्ष आमंत्रित होकर मजे लिया करते हैं, हमने बच्चों के बारे में कभी सोचा तक नहीं।

 कभी किसी वर्ष बच्चों पर ही यह छोड़ कर देखें कि तमाम आयोजनों में इच्छा हो तो आएं, फिर देखें अपना प्रभाव और करें आयोजन, लें मजा, पाएं पुरस्कार-सम्मान और अभिनंदन। होश फाख्ता हो जाएंगे। बच्चों को वाकई लगना चाहिए कि बाल दिवस है। और यह तभी लग पाएगा जबकि हम बड़े लोग बच्चों के प्रति दिल से चाहत रखें, संवेदनशील बनें और बचपन बचाने के लिए नेक-नीयत से आगे आएं।

 -लेखक दीपक

 

 

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